आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Friday, December 26, 2014

मनुष्य की पाशविकता का आख्यान (पुस्तक समीक्षा)

(उपन्यास: ‘सेन्ट ऑफ़ ए गेम’, लेखक – राघव चन्द्रा, प्रकाशक – रूपा पब्लिकेशन्स इण्डिया प्रा. लि., दिल्ली 2014, मूल्य – 395 रु.; समीक्षक:  उमेश चौहान) 

अंग्रेज़ी भाषा के बहुत कम ही उपन्यास ऐसे होते हैं, जिन्हें हिन्दी के पाठकों के लिए भी उतना ही रुचिकर व सरोकारपूर्ण तथा वैचारिक स्तर पर उतना ही महत्वपूर्ण माना जा सकता है, जितना अंग्रेज़ी के पाठकों के लिए। वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी राघव चन्द्रा का रूपा पब्लिकेशन्स, दिल्ली से 2014 में प्रकाशित अंग्रेज़ी उपन्यास ‘सेन्ट ऑफ़ ए गेम’ (शिकार की खुशबू) एक ऐसा ही विरल उपन्यास है, जो हमें कथा - साहित्य की उस नई एवं आधुनिकतम दुनिया में ले जाता है, जहाँ वन्य - जीव संरक्षण, विशेष रूप से बाघ (टाइगर) को बचाने की योजनाओं के नाम पर हमारे संरक्षित वनों में चल रहे विनाशकारी एवं क्रूर खेल का सच नंगा होकर सामने आता है। राघव चन्द्रा ने इस उपन्यास में सरकारी वन, पुलिस व जेल विभाग के कर्मियों व वन - तस्करों के बीच की मिलीभगत, रूढ़िवादी व सामाजिक पिछड़ेपन के कारण शेरों की निर्मम हत्या करने स्थानीय कसाई प्रवृत्ति के लोगों, दंभी राजपरिवारों, ब्रिटिश प्रशासन से लेकर वर्तमान समय के विदेशी व्यापारिक प्रतिष्ठानों तक के एडवेन्चर - प्रेमी व लालची शिकारियों, टाइगर के अंग - अंग का व्यापार करने वाले राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय माफियाओं, पुंसत्व की शक्ति बढ़ाने वाले टाइगर के उत्पादों के भूमंडलीय कारोबारियों, वन - संरक्षण की गोहार लगाते हुए उसकी आड़ में इन तस्करों के धंधे में स्लीपिंग पार्टनर बनकर मज़ा लूट रहे तथाकथित समाजसेवियों, नेताओं व क्रांतिकारी नक्सलियों, विकसित देशों के प्रभुत्व के आगे नतमस्तक टाइगर संरक्षण के लिए गठित ‘साइटेस’ जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं, सभी की कारस्तानियों को एक रोचक कथानक के माध्यम से बखूबी उजाकर किया है।

कान्हा टाइगर रिज़र्व से बड़ी मादा नाम की एक सुन्दर व आकर्षक बाघिन का एकाएक ग़ायब हो जाना एक अन्तर्राष्ट्रीय ख़बर बनती है। यह ख़बर एक युवा एवं खोजी, आधुनिक विचारों वाली, खूबसूरत, धुन की पक्की, साहसी एवं सच्चरित्र ऐंग्लो - इंडियन पत्रकार शेरी पिन्टो ब्रेक करती है। वह वन - माफियाओं के खेल को अपनी जान जोख़िम में डालकर भी उजागर करना चाहती है। उसे अपनी मुहिम में कान्हा टाइगर रिजर्व के कड़कमिज़ाज़ व वन - संरक्षण के प्रति सत्यनिष्ठा रखने वाले उपनिदेशक गंगा का साथ मिलता है। किन्तु माफिया ताक़तवर हैं और उनकी पहुँच ऊपर तक है। गंगा सच्चाई की तह तक पहुँचे, उसके पहले ही उसका वहाँ से ट्रांसफर हो जाता है और मामले में जाँच बैठ जाती है। इसी बीच उपन्यास का मुख्य कथापात्र एन.आर.आई. रामचन्द्र प्रसाद पिता की बीमारी की ख़बर पाकर अमेरिका से अमरकंटक आता है, किन्तु पिता की मृत्योपरान्त उनके द्वारा वर्षों तक सहेजकर रखी गई टाइगर की खाल को वन - विभाग में जमा कराने के चक्कर में वह वन - तस्करों के गुर्गों के जाल में फँसकर जेल पहुँच जाता है। तभी शेरी पर जानलेवा हमला होता है और बच जाने पर उसे एक झूठे केस में फँसा दिया जाता है। किन्तु गंगा उसकी जमानत करवा लेता है। उसका संपादक उसे "हम एक कन्जर्वेटिव अख़बार हैं और हमें सरकार की मदद चाहिए" कहकर आगे बढ़ने से रोकना चाहता है। किन्तु शेरी जेल में बंद राम से मिलती रहती है, ताकि वह वह वन - तस्करों व बड़ी मादा के ग़ायब होने के रहस्य के बारे में और अधिक जानकारी हासिल कर सके। जेल से छुटकारा पाने के चक्कर में राम एक प्रतिष्ठित व्यवसायी की पहचान रखने वाले बाघों की अंतर्राष्ट्रीय तस्करी के गैंग के मुखिया फिरोज़ गोयनका उर्फ़ गोवा साहब के चंगुल में फँसकर जबलपुर से काठमांडू, म्यांमार, तथा चीन तक फैली उसकी व्यापार - श्रंखला की अवैध गतिविधियों में शामिल होता चला जाता है। शेरी भी अपनी खोजी कोशिशों के चलते म्यांमार में स्थित बाघों की घाटी तक पहुँच जाती है। वहाँ राम से मिलने पर ही उसे इस बात का पता चलता है कि बड़ी मादा किस तरह से इन अन्तर्राष्ट्रीय माफियाओं द्वारा नागालैंड बार्डर से होते हुए म्यांमार के रास्ते से चीन में स्थापित किए गए रेनबो टाइगर ब्रीडिंग पार्क तक पहुँचाई जा चुकी है।      

राघव चन्द्रा ने इस उपन्यास में टाइगर के नाम वाले उत्पादों के अन्तर्राष्ट्रीय आकर्षण एवं उनके व्यापार के चक्कर में नेस्तनाबूद होती जा रही बाघ की प्रजाति के बारे में गहरी चिन्ता व्यक्त की गई है। पूरी दुनिया में टाइगर बाम, टाइगर एयर, टाइगर बियर, टाइगर वाइन, टाइगर स्प्रे जैसे उत्पादों का बोलबाला होना यही दरशाता है कि लोगों को इस नाम में कुछ अद्भुत 'किक' मिलती है। राघव चन्द्रा ने इस उपन्यास में टाइगर से जुड़े व्यावसायिक हितों के गंदे चेहरे को उजागर करने के लिए पैन थेराप्यूटिकल्स नामक चीन की बायोजेनेटिक्स कंपनी ('पैन्थेरा' अर्थात तेंदुये से जुड़ा नाम) तथा भारत की ज़ेन्टिग्रिस इंडिया ('टिग्रिस' अर्थात टाइगर से जुड़ा नाम) नामक सॉफ्टवेयर कंपनी के बीच स्थापित होने वाले संयुक्त उपक्रम को माध्यम बनाया है। उपन्यास की नायिका शेरी का मानना है कि वन्य - जीवन हमेशा से एक व्यवसाय रहा है और हमेशा ही रहेगा। ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में मसालों, रेशम, चाय या मोतियों का व्यापार करने नहीं आई थी, वह तो बस व्यापारियों का मुखौटा लगाकर घूम रहे प्यासे ख़ूनी शिकारियों को भारतीय तटों तक पहुँचाने का माध्यम थी। उन्हें मसालों की सुगंध ने नहीं आकर्षित किया। उन्हें तो शिकार करने की आज़ादी, उसकी सनसनी, उसके रोमांस, उस पर फ़िदा सुन्दरियों के सान्निध्य, उनकी खुशबू ने आकर्षित किया। यह शिकार की खुशबू थी। यही उनकी असली उत्तेजना थी। शेरी को इस बात का भी अफ़सोस है कि भारतीय मुग़ल बादशाह व राजे - महाराजे भी बाघों के प्रति अत्याचार करने के मामले में अंग्रेज़ों से कम नहीं थे। बाघों की स्थिति से विक्षुब्ध शेरी याद करती है कि नरभक्षी बाघों के सुप्रसिद्ध शिकारी, जिम कॉर्बेट ने कहा था कि बाघ अमित साहस से भरा एक विशाल हृदय वाला भद्र पुरुष होता है। उसे स्पष्ट दिखाई देने लगता है कि आदमी ही असली जानवर है।


लेखक की गहरी व संवेदनापूर्ण भावाभिव्यक्ति का एक बेहतरीन नमूना उपन्यास के अंतिम खंड में वर्णित शिकार के दृश्य में सामने आता है। बाघ के नरभक्षी हो जाने की झूठी ख़बर अख़बार में छपवाकर तथाकथित वन्यजीवी - प्रेमी महाराजा अभिमन्यु सिंह, व्यवसायी फिरोज़ गोयनका, नक्सली कमांडर पैन्थर व उनके चंगुल में फँसा राम बिलासपुर के अचानकमाड़ के जंगल में शिकार के लिए जाते हैं और शेर को ललचाने के लिए मचान के पास लाकर बांधी गई गाय और उसके बछड़े को काटने के लिए अभिमन्यु राम को गड़ासे के साथ मचान से नीचे भेजता है। मचान से नीचे भेजा गया राम अपने स्वर्गीय पिता के मन में एक बाघ को मारने के कारण पैदा हुए आजीवन अपराध - बोध और उसके कारण उनके द्वारा किए गए पश्चाताप को याद करता है। उसकी सुप्त चेतना एकायक जागृत हो जाती है वह पतन के गर्त से बाहर निकल आता है। उसके बाद जो होता है, वह मचान पर बैठे उपन्यास के तीनों खलनायकों के लिए अकल्पनीय होता है। संक्षेप में ‘सेन्ट ऑफ़ ए गेम’ कान्हा टाइगर रिज़र्व, अमरकंटक और अचानकमाड़ से लेकर दक्षिण भारत, नेपाल, तिब्बत, म्यांमार, चीन तथा अमेरिका की सिलिकॉन वैली तक फैले एक भूमंडलीय षड्यंत्र की कहानी है, जिसकी उत्पत्ति ग्लोबलाइज़ेशन के इस दौर में न होकर उपनिवेशकाल में ही हो चुकी थी। टाइगर, जो वन्यजीवन के बायोटिक पिरामिड के शीर्ष पर स्थित है, उसे उस स्थान से समाप्त किया जाना राघव चन्द्रा की दृष्टि में एक असाधारण बात है, क्योंकि राजनीति के खेल में तो बगलग़ीर निपटाए जाते हैं, राष्ट्राध्यक्ष नहीं। मेरी दृष्टि में यह उपन्यास हिंसक पशु बनते जा रहे मनुष्य की पाशविकता का आख्यान है, जिसका अभयारण्य सार्वभौमिक है, किन्तु अंतिम परिणति भयानक व पीड़ादायक आत्मनाश ही है। 

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