(केदारनाथ सिंह की बेटी रचना सिंह के अथक
परिश्रम से उनके पहले के विभिन्न साक्षात्कारों का एक संग्रह 'मेरे साक्षात्कार' शीर्षक से किताबघर
प्रकाशन,
नई
दिल्ली से वर्ष 2008
में
छपा। मैंने इस पुस्तक में शामिल केदारनाथ सिंह के साक्षात्कारों में से उनकी काव्य
- दृष्टि के कुछ तत्व
छांटने का एक प्रयास किया है,
जो
यहाँ प्रस्तुत है।)
कविता
की अवधारणा
कविता के बारे में सामान्य धारणा है कि कविता
प्रकृति में यथार्थ
- विरोधी
होती है। इसलिए कविता से यह माँग होती है कि वह यथार्थ से मुठभेड़ करे, उसका साक्षात्कार
करे। ……
(वास्तव
में)
कविता
अपने तत्व यथार्थ से ही लेती है। वह दोहरे स्तर पर यथार्थ से जुड़ती है। वह
अभिव्यक्ति का उपकरण भी यथार्थ से ही लेती है और यथार्थ को ही व्यक्त भी करती है।
यहाँ से दो बातें निकलती हैं कि कविता यथार्थ के बिना जीवित नहीं रह सकती और दूसरी
ओर यथार्थवाद के अलावा वह एक ख़ास तरह की विचार - परंपरा से भी जुड़ी होती है। (अनिल जनविजय व भारत
यायावर द्वारा किए गए साक्षात्कार 'आग
और रोटी का रिश्ता'
से)
समाज और यथार्थ, और वह सब कुछ जो जीवन और जगत
में है,
कविता
में आना चाहिए,
लेकिन
कविता की शर्तों को भूले बिना। मेरा ख़्याल है कि एक रचनाकार को कविता के अपने
मोर्चे पर खड़े होकर वहीं से अपनी लड़ाई लड़नी चाहिए। (दुर्गाप्रसाद गुप्ता द्वारा
किए गए साक्षात्कार 'भारतीय कविता को संश्लिष्ट
कविता होना चाहिए'
से)
कविता
की रचना
- प्रक्रिया
रचना का कहीं न कहीं एक ख़ास तरह की रचनात्मक
मुक्ति से गहरा संबन्ध होता है और उसी मुक्ति में मेरा विश्वास है। (अनिल जनविजय व भारत
यायावर द्वारा किए गए साक्षात्कार 'आग
और रोटी का रिश्ता'
से)
काव्य - प्रक्रिया एक ऐसा विषय है जो अवचेतन मन
में प्रवेश करने की अपेक्षा रखता है। एक बार जब कविता आकार प्राप्त कर लेती है तो
इसकी सृजन - प्रक्रिया के बारे में दावे के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता। ……
आधुनिक कवि के लिए काव्य - प्रक्रिया, जीवन - प्रक्रिया से बहुत अलग नहीं होती। न
जाने कैसे जीवन - प्रक्रिया ही काव्य - प्रक्रिया में रूपांतरित हो जाती है। (ई.बी. रामकृष्णन द्वारा
किए गए साक्षात्कार 'जैसे पुल नाव का
विस्तार है'
से)
मैंने कविता से अपने रिश्ते को किसी हद तक पुष्ट
किया। यत्नपूर्वक किया। कविता से यह रिश्ता अनायास नहीं हुआ। कविता की एक समझ इसी
प्रकार बनी। अपने ‘मॉडल’ भी चुने। शुरू के ‘मॉडल’ बीच में बदले। इसके
कारण कई बदलाव आए हैं। यह एक कवि की विकास - प्रक्रिया है। (अभिज्ञात द्वारा किए
गए साक्षात्कार 'समकालीन कविता के
बीच व्यापक पारिवारिक समानता है'
से)
कविता की निर्माण - प्रक्रिया को लेकर कोई
सामान्य नियम नहीं बनाया जा सकता। यह छोटी और लम्बी दोनों प्रकार की कविताओं पर
लागू होता है। हाँ,
लम्बी
कविताओं में यदि कथावस्तु हुई तो उसका दबाव अलग ढंग से काम करता है और कई बार
कविता उस दबाव से आगे बढ़ती है। (आशा मेहता द्वारा
किए गए साक्षात्कार
'अध्यात्म
केवल आत्मतत्व का चिन्तन नहीं है'
से)
कवि को लिखने के लिए कोरी स्लेट कभी नहीं मिलती
है। जो स्लेट उसे मिलती है,
उस पर
पहले से बहुत कुछ लिखा होता है। वह सिर्फ़ बीच की खाली जगह को भरता है। इस भरने की
प्रक्रिया में ही रचना की संभावना छिपी हुई है। (मिथिलेश श्रीवास्तव द्वारा
किए गए साक्षात्कार ‘लिखना चुप रहने के
विरुद्ध एक निरन्तर लड़ाई है’
से)
कविता
का भाषा एवं शब्द से अन्तर्संबन्ध
कविता की बुनियाद भाषा में है। कविता में भाषा
बहुत बड़ी भूमिका निभाती है। कई बार हम उसके लिए सचेत नहीं होते हैं। यह भाषा
अर्जित करनी पड़ती है। (अभिज्ञात द्वारा किए
गए साक्षात्कार
'समकालीन
कविता के बीच व्यापक पारिवारिक समानता है' से)
विचार, अनुभूति और संवेदना - सबका संबन्ध शब्द से होता है
और कविता शब्द है। शब्द
- जो
कवि के लिए सबसे रहस्यमय वस्तु है। शब्द के माध्यम से ही कविता घटित होती है, जो अपने आप में एक
समग्र इकाई होता है। ……
शब्दबद्ध
रचना की आकृति कवि के लिए रहस्यमय है। कवि शब्दों से उलझकर उन्हें खोलना चाहता है।
वह शब्दों से जूझता है। यही उसका कविता से लगाव है। कविता का विलक्षण रचनातंत्र
है। जीवन का जितना रूपायन कविता करती है, उतना अन्य कोई विधा नहीं कर पाती। कवि इसी रूप
में कविता से जुड़ता है। ……
भाषा
के स्वरूप में कविता एक बड़ा चेंज़ लाती है। कविता का तंत्र बहुत जटिल होता है। इस
चेंज़ को समझाने के लिए कवि को आगे आना पड़ता है। …… कविता जिस तरह भाषा को
विकसित करती है,
उसमें
यह निहित है कि कवि आगे आकर समझाए। कविता का ढाँचा लचीला होता है। एक्स्पेरिमेन्ट
सबसे ज्यादा और जल्दी कविता में ही होते हैं। कविता में क्यों इतने आंदोलन हैं? क्योंकि हर आंदोलन
की अपनी व्याख्या है। जितने आंदोलन कविता में हुए हैं उतनी ही ज़्यादा बार कवि को
सामने आना पड़ा है। यह विलक्षण फिनोमिना है जो कविता के विकास से जुड़ा हुआ है। (अनिल जनविजय व भारत
यायावर द्वारा किए गए साक्षात्कार 'आग और रोटी का रिश्ता' से)
शब्द से पहले कविता नहीं है और शब्द में जो
उतरकर आता है वह जरूरी नहीं कि हमारे मनोवेग का हिस्सा हो। भाषा केवल माध्यम नहीं
है और सजावट की वस्तु तो बिल्कुल नहीं, इसलिए पूरी प्रक्रिया में भाषा की
महत्वपूर्ण भूमिका होती है। भाषा बाहर यानी समाज की ओर से आती है, जिसे हम अपने
साँचे में ढालने की कोशिश करते हैं। जब भाषा आती है तो बहुत कुछ लेकर आती है और जो
चीज़ लेकर आती है उसका उस समुदाय से गहरा रिश्ता होता है जिसके द्वारा वह ली जाती
है - आख़िर भाषा स्मृतियों का पुंज है और विलक्षण यह है कि स्मृतियाँ पुरानी और एकदम
ताज़ा भाषा में घुली - मिली होती हैं। इसलिए मुझे लगता है कि किसी रचना की
प्रक्रिया की पड़ताल वस्तुत: वह जिस तरह से भाषा में ढली है, उसकी पड़ताल है। (हेमलता द्वारा किए
गए साक्षात्कार 'मेरे लिए मेरा गाँव
स्मृतियों का महाकोश है'
से)
भाषा के भीतर कविता की भाषा की अतिगामी प्रकृति
कविता की भाषा को ज्ञान की भाषा से अलग करती है और इस प्रक्रिया के द्वारा वह
स्वयं भाषा का माध्यम मात्र न रहकर सृजन का सक्रिय साझेदार बन जाती है। भाषा को यह
सामर्थ्य एक ओर रचनाकार की सृजन - क्षमता से मिलती है, दूसरी ओर स्वयं उस भाषा को
बोलने वालों की एक लंबी जमात जो हमेशा भाषा की पृष्ठभूमि में होती है, उससे भी
मिलती रहती है। इसलिए भाषा यह सर्जनशीलता एक द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया के भीतर
अर्जित करती है - यानी एक ओर रचनाकार, दूसरी ओर भाषा और उसका वक्ता समाज। (सदानन्द शाही द्वारा
किए गए साक्षात्कार ‘समकालीन हिन्दी
कविता के सामने मुद्रित पाठ को उच्चरित पाठ में बदलने की चुनौती है’ से)
कविता एक ऐसी चीज़ है जिसका अपनी चली आई परंपरा
के सूत्रों से इतना गहरा रिश्ता है कि उसके बिना कविता संभव ही नहीं है, क्योंकि हम शब्द से
कविता लिखते हैं और शब्द हमारी बनाई हुई चीज़ नहीं है। हम शब्द को परंपरा से
प्राप्त करते हैं। कविता की भाषा हमारी बनाई हुई नहीं है। वह परंपरा से चली आ रही
है। हम सिर्फ़ उसे अपने युग के जीवंत भाषिक संदर्भ से जोड़ देते हैं और इस तरह से
उसे नया संस्कार देते हैं। ……
कविता
पुराने शब्दों को छोड़ती नहीं है। शब्द के बारे में मेरा मानना है कि जो शब्द जितना
पुराना,
वह
शब्द उतना ही अर्थवान होता है। जो शब्द जितने लम्बे समय से लोक - व्यवहार में रहता है, उस पर उतनी ही
ज़्यादा मानवीय जीवन की ऐतिहासिक छाप पड़ती चली जाती है। हमारी पुरानी स्मृति में
पड़े हुए शब्द हमारी कई स्मृतियों को एक साथ जगाते हैं। (मिथिलेश श्रीवास्तव द्वारा
किए गए साक्षात्कार ‘लिखना चुप रहने के
विरुद्ध एक निरन्तर लड़ाई है’
से)
शब्द अपनी परंपरा से एक चेतना - संदर्भ लेकर आते
हैं। श्रेष्ठ कविताओं में परंपरा के गतिशील आयाम होते हैं। आज जो कविताएँ लिखी जा
रही हैं,
वहाँ
संकट दिखता है। लगता है,
कोरी
स्लेट पर लिखी जा रही हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण रिक्तता है। ऐसी कविताएँ ज़िन्दा नहीं
रहतीं। ……
कविता
में शब्दबद्ध कला दो स्तरों पर दिखनी चाहिए। एक तो कवि की जो वेदना है, उसकी
गहराई, सच्चाई व तीव्रता किस हद तक है। वह पर्याप्त न हो तो अच्छी कविता नहीं
बनेगी। भाषा के विशिष्ट प्रयोग में संवेदना की तीव्रता जितनी मुखर होगी, वह खिल
उठेगी। दोनों में अटूट संबन्ध होना चाहिए। शब्द और अर्थ का घनिष्ठ संबन्ध होना
चाहिए। तभी वे एकाकार होंगे। दोनों में भेद नहीं होने से ही संसार की सारी बड़ी
कविताएँ संश्लिष्ट रूप में सामने आती हैं। भाषा के विशिष्ट प्रयोग पर ग़ौर करना
चाहिए। अच्छी कविता बीच - बीच में अपने विशिष्ट प्रयोगों से, उपमा से, रूपक से
रोकती है, टोकती है। …… इसीलिए उसमें जल्दीबाज़ी नहीं होनी चाहिए। कविता पढ़ना सौ
मीटर की दौड़ नहीं। कविता अच्छी तभी होगी जब वह सरपट न दौड़ाए। बाधा दे, रोके। (कृपाशंकर चौबे
द्वारा किए गए साक्षात्कार ‘कविता पढ़ना सौ मीटर
की दौड़ नहीं’
से)
मुझे ग़लत भाषा बहुत आकृष्ट करती है। अजब बात है, क्योंकि जीवंतता उसी
में होती है और लगातार चुनौती के रूप में वहाँ रहती है। और मैं इधर मानने लगा हूँ
कि जो भाषा ग़लत लिखने और बोलने की जितनी छूट देती है अपने समाज में, वह उतनी ही ज़िन्दा
रहती है। (सुधीश पचौरी द्वारा
किए गए साक्षात्कार ‘पाणिनि से झगड़ा है’ से)
कविता
में बिम्ब
कविता यदि सम्मूर्तन है तो वह बिंब के बिना संभव
नहीं है। इसलिए बिंब तो कविता में किसी न किसी रूप में रहता ही है। …… कविता बिंब
- बहुल नहीं होती - बिंबमय या बिंबात्मक होती है और जहाँ बिंबों का समुच्चय मात्र
होगा, वहाँ कविता कमज़ोर होगी और उसका मूल आशय ग़ायब हो जाएगा। (दुर्गाप्रसाद गुप्ता
द्वारा किए गए साक्षात्कार 'भारतीय कविता को
संश्लिष्ट कविता होना चाहिए'
से)
बिना बिंब के कविता में काम नहीं चलता है और हर
युग की कविता में बिंब के प्रयोग का चलन रहा है। सवाल बिंबों के नियोजन का है। आप
कैसे उनका प्रयोग करते हैं?
उनकी
भूमिका कितनी गौण या प्रमुख है?
बिंबों
के परस्पर संबन्धों का रूप क्या है? है भी या नहीं? कितना गैप रह गया है? कविता जो कहना चाहती
है,
उसको
बिंब कहाँ तक संकेतित कर पाते हैं? ये सारी बातें महत्वपूर्ण होती हैं। …… कविता में बिंब हों, यह तो ठीक है, लेकिन कविता बिंब - बहुल न हो, बिंब से बोझिल न हो।
उससे बचना चाहिए। बिंब
- बहुल
कविता अपने आशय को क्षतिग्रस्त करती है। बिंब का चयन बहुत सतर्क एवं सावधान
प्रक्रिया है और उसमें न्यूनतम बिंब - प्रक्रिया से काम लेने तक अपने को सीमित रखना
चाहिए। बिंब
- मोह
नहीं होना चाहिए। बिंब
- नियोजन
की प्रक्रिया में कवि को निर्मम होना चाहिए। (मिथिलेश श्रीवास्तव द्वारा
किए गए साक्षात्कार ‘लिखना चुप रहने के
विरुद्ध एक निरन्तर लड़ाई है’
से)
कविता को इस प्रकार रूपायित किया जाना चाहिए कि
उसमें बिंब के अस्तित्व का अलग से बोध न हो, बल्कि वह पूरी रचना - प्रक्रिया में इस
प्रकार घुल -
मिल
जाए कि उसकी अंतर्दैहिक इकाई का अविच्छिन्न हिस्सा बन जाए। यानी कविता में बिंब की
घुलावट महत्वपूर्ण है,
बिंब
की प्रमुखता नहीं। (आशा मेहता द्वारा
किए गए साक्षात्कार ‘अध्यात्म केवक
आत्मतत्व का चिंतन नहीं है'
से)
कविता
का लय और छंद से संबन्ध
हिन्दी कविता में, रूप के स्तर पर छंद या लय से
हटकर गद्यवृत्त के भीतर पूरे काव्य - विस्तार का सिमट जाना कई बार मेरे जैसे व्यक्ति
को थोड़ा परेशान करता है। यह एक ऐसी स्थिति है, जिस पर आने वाले समय में
गहराई से विचार करने की जरूरत होगी। (देवेन्द्र
चौबे द्वारा किए गए साक्षात्कार ‘आज़ादी के बाद का
समाज और साहित्य'
से)
छंद का प्रश्न विचारणीय है। यह एक तथ्य है कि आज
लगभग सारी समकालीन कविता गद्य की लय में लिखी जाती है। या कहें कि गद्य के भीतर की
लय के विविध आयामों को तलाशते हुए लिखी जा रही है। …… हिंदी कविता के छंद की
परम्परा संस्कृत के परम्परागत छंदों से लोक के मुक्त प्रवाही छंदों तक फैली हुई
है। …… इतनी बड़ी समृद्ध परम्परा से आँख मूँदकर चलना अपने को लगातार एक घाटे की
स्थिति में रखना है। यहाँ मैं इतना जोड़ना चाहूँगा कि किसी भी भारतीय भाषा में छंद
को इस तरह नहीं छोड़ा गया है जिस तरह हिंदी कविता में छोड़ा गया है। मुझे लगता है,
नई शताब्दी में प्रवेश करते हुए कविता को जिन मूलभूत समस्याओं से दो - चार होना
पड़ेगा, उनमें यह छंद की समस्या भी एक है। (सदानन्द शाही द्वारा किए गए
साक्षात्कार ‘समकालीन हिन्दी
कविता के सामने मुद्रित पाठ को उच्चरित पाठ में बदलने की चुनौती है’ से)
गीत की जन्मभूमि लोकगीत है, आदर्श भी लोकगीत है।
गीत को हमेशा अपनी ताक़त अर्जित करने के लिए वहीं जाना पड़ेगा। छायावादियों ने गीतों
को लोक - परम्परा से दूर ले जाने का ख़तरा उठाया था। निराला पहले व्यक्ति थे जिन्होंने
इसे महसूस किया और बाद में अपने गीतों को दूसरे स्तर पर विकसित किया। (धर्मेन्द्र त्रिपाठी
द्वारा किए गए साक्षात्कार 'आज बुद्धिजीवी वर्ग
अप्रासंगिक होता जा रहा है'
से)
कविता
में विचार एवं विचारधारा
विचार और भाव के बीच जैसा पार्थक्य हम करते हैं, वैसा होता नहीं है।
कोई भाव विचार
- शून्य
नहीं होता,
भाव
में विचार निहित है क्योंकि भाव तो सभ्यता और संस्कृति की प्रक्रिया से निकलकर आए
हुए मनुष्य का बोध है। ……
जहाँ
विचारधारा सतह पर तैरती हुई दिखाई पड़ती है, वहाँ साहित्य कमज़ोर पड़ जाता
है। उदाहरण के लिए मैं कहूँ तो तुलसीदास का ‘उत्तरकांड’ सबसे कमज़ोर है और
इसलिए कमज़ोर है कि वहाँ विचारधारा सतह पर तैरती हुई दिखाई पड़ती है। लेकिन जहाँ वह
संवेदना का हिस्सा है,
वहाँ
एक बड़ी रचना पैदा होती है। (धर्मेन्द्र त्रिपाठी
द्वारा किए गए साक्षात्कार 'आज बुद्धिजीवी वर्ग
अप्रासंगिक होता जा रहा है'
से)
यदि आपका कोई नैतिक संदेश है तो कविता में उसे
अन्तर्निहित होना चाहिए, मुखर नहीं। मैं अनुभूति से विचार की ओर अग्रसर होता हूँ,
जिनके बीच एक द्वंद्वात्मक संबन्ध होता है। पर मैं कविता को कभी अवधारणाबद्ध नहीं
करता। (ई.बी. रामकृष्णन द्वारा किए
गए साक्षात्कार 'जैसे पुल नाव का
विस्तार है'
से)
कविता के पास अपना विचार होना चाहिए और जीवन -
जगत के बारे में उसका विचार जितना ही गहरा और पुख़्ता होगा, उसकी रचना उतनी ही
मजबूत होगी, इसमें मुझे कोई संशय नहीं। परन्तु विचारधारा एक अलग चीज़ है और
विचारधारा के साथ दूसरी बहुत सारी चीज़ें जुड़ी होती है, यानी कई बार उसके संगठन भी
जुड़े होते हैं। (दुर्गाप्रसाद गुप्ता
द्वारा किए गए साक्षात्कार 'भारतीय कविता को
संश्लिष्ट कविता होना चाहिए'
से)
प्रतिबद्धता एक रचनाकार की अगर होती है तो वह उस
मनुष्य के प्रति ही होती है जिसको सामने रखकर वह रचना करता है। कविता विचारहीन
नहीं हो सकती, परन्तु विचारात्मक प्रतिबद्धता को मैं कविता के लिए अनिवार्य नहीं
मानता। रचनाकार का वैचारिक धरातल ज़्यादा खुला हुआ होना चाहिए। खुलापन एक तरह की
मुक्ति है और रचना का इस मुक्ति से बहुत गहरा रिश्ता है। (हेमलता द्वारा किए गए
साक्षात्कार 'मेरे लिए मेरा गाँव
स्मृतियों का महाकोश है'
से)
कविता के लिए मनुष्य की पक्षधरता के अतिरिक्त
मैं किसी अन्य पक्षधरता को आवश्यक नहीं मानता। मनुष्य में भी अमूर्त मानव नहीं, बल्कि जीता - जागता, ठोस, दुखी, संतप्त, वंचित मानव जो हमारे
देश का बहुसंख्यक मानव है। पक्षधरता का एक दूसरा धरातल स्वयं शब्दकर्म हो सकता है, जिसकी अपनी कुछ
बुनियादी शर्तें होती हैं,
जिन्हें
दृष्टि से ओझल कर देने के बाद न तो कविता कविता रह जाती है और न ही उसका सर्जक
सर्जक।
(सदानन्द
शाही द्वारा किए गए साक्षात्कार ‘समकालीन हिन्दी
कविता के सामने मुद्रित पाठ को उच्चरित पाठ में बदलने की चुनौती है’ से)
वैचारिक प्रतिबद्धता रचनाकार की बड़ी रचना के लिए
जरूरी है। वैचारिक प्रतिबद्धता किसी किसी बाहरी सत्ता के प्रति नहीं होनी चाहिए।
यदि है तो वह प्रतिबद्धता रचना को क्षतिग्रस्त कर देगी। बुनियादी तौर पर यह
प्रतिबद्धता मानव
- भविष्य
के प्रति होनी चाहिए। दल की प्रतिबद्धता को मैं हितकर नहीं मानता। (कृपाशंकर चौबे
द्वारा किए गए साक्षात्कार ‘कविता पढ़ना सौ मीटर
की दौड़ नहीं’
से)
कविता
के सरोकार एवं नए विमर्श
विषम से विषम परिस्थिति में भी व्यवस्था की
असाधारणता के भीतर कविता कहीं न कहीं अपना रास्ता निकाल लेती है। हाँ मैं यह जरूर
मानता हूँ कि कविता से अतिरिक्त मांग नहीं की जानी चाहिए। कविता क्रांति ले आएगी,
ऐसी ख़ुशफ़हमी मैंने कभी नहीं पाली, क्योंकि क्रांति एक संगठित प्रयास का परिणाम
होती है, जो कविता के दायरे के बाहर की चीज़ है। इसलिए बेहतर होगा कि हम कविता से
वही मांग करें, जो वह दे सकती है। मेरी मान्यता है, एक अच्छी कविता क्रांति के लिए
उपयुक्त वातावरण बनाने में सैकड़ों राजनीतिक प्रस्तावों से कहीं ज़्यादा काम करती है
और कविता यही कर सकती है। जो लोग उससे सीधे क्रांति या युद्ध में शिरकत की अपेक्षा
रखते हैं, वे कविता की मूल प्रकृति को ही नहीं समझते हैं। (विनोद दास द्वारा किए
गए साक्षात्कार ‘कविता क्रांति लाएगी, ऐसी ख़ुशफ़हमी मैंने कभी नहीं पाली’ से)
गहरी और प्रखर राजनीतिक चेतना के बिना कविता
नहीं लिखी जा सकती। ……
किसी
राजनीतिक दल में रहकर भी अच्छी रचना लिखी जा सकती है, पर महत्वपूर्ण यह है कि
कविता के लिए कवि कितना संपृक्त हो पाता है, कितना श्रम करता है। …… राजनीति के दलगत
ढाँचे की अपनी शर्तें होती हैं और कविता प्रकृति से ही मुक्त होती है। (अनिल जनविजय व भारत
यायावर द्वारा किए गए साक्षात्कार 'आग और रोटी का रिश्ता' से)
सारे नहीं तो हिन्दी के ज़्यादातर आधुनिक लेखन
में विस्थापन की पीड़ा किसी न किसी रूप में ध्वनित होती है, क्योंकि उसमें ज़्यादातर
वे लोग हैं, जो गाँव से आए हैं। वे शहर के बन पाते हैं या नहीं बन पाते हैं, लेकिन
शहर में अपने आपको एडजस्ट करने में एक बड़ी लड़ाई लड़ते हैं। उस लड़ाई में बहुत कुछ
खोते हैं। एक ख़ास तरह का मध्यमवर्ग शहर में विकसित होता रहा है, जो गाँवों से आया
है। आधुनिक हिन्दी साहित्य उन्हीं लोगों का साहित्य है। (मिथिलेश श्रीवास्तव द्वारा
किए गए साक्षात्कार ‘लिखना चुप रहने के
विरुद्ध एक निरन्तर लड़ाई है’
से)
हिन्दी की मुख्य रचनात्मक धारा शुरू से ही
ग्रामोन्मुखी रही है। हिन्दी की यह ग्रामोन्मुखता एक प्रमुख कारण थी, जिसके चलते ही खड़ी
बोली के दो हिस्से हो गए। वह हिस्सा जो ग्रामोन्मुख था, हिन्दी कहलाया और जो शहर - केन्द्रित था, उसे उर्दू कहा गया।
दुनिया की किसी भी भाषा में इस तरह का बँटवारा नहीं हुआ है। अज्ञेय से पहले हिन्दी
का कोई ऐसा कवि नहीं हुआ जो शुद्ध रूप से नागरिक कवि हो। (वीरेशचंद्र द्वारा किए गए
साक्षात्कार ‘गाँव की दुनिया से
कविता का रिश्ता’
से)
कविता
और बाज़ार
आज हर भाषा की एक बड़ी परीक्षा यह है कि वह बाज़ार
की व्यवस्था का सामना कैसे करती है और मेरा ख़्याल है कि हमारी हिन्दी भाषा एक नए
विज्ञान की भाषा के रूप में ढल रही है। यह उसके लचीलेपन का प्रमाण है कि वह यहाँ
भी अपनी सार्थकता प्रमाणित करने की स्थिति में है। इसके कुछ दुष्परिणाम भी हैं।
इससे भाषा में कुछ दूसरे प्रकार की विकृतियों के आने का ख़तरा भी है, लेकिन फिर भी
मैं मानता हूँकि जिस दौर से हम गुजर रहे हैं, उसमें प्रत्येक भाषा को इन स्थितियों
से गुजरे बिना आगे का रास्ता मिलेगा नहीं। (धर्मेन्द्र त्रिपाठी द्वारा
किए गए साक्षात्कार 'आज बुद्धिजीवी वर्ग
अप्रासंगिक होता जा रहा है'
से)
मैं ऐसा नहीं मानता कि विश्व - बाज़ार कविता को निगल
जाएगा और कविता हमेशा के लिए अपना प्रभाव खो देगी। मैं मानता हूँ कि कविता के लिए
समाज की हर गतिविधि एक कच्चे माल की तरह होती है। विश्व - बाज़ार विश्व - समाज की नई गतिविधि
है और उसमें बहुत कुछ ऐसा हो सकता है जिससे नए ढंग की कविता जन्म ले। कविता अपनी
प्रकृति से ही हर स्थिति का सामना करती है। वह उसे तोड़ती - फोड़ती है, जिससे नई संभावनाएँ
जन्म लेती हैं। यह उसके वजूद की निशानी है। (रवीन्द्र त्रिपाठी द्वारा
किए गए साक्षात्कार ‘बाज़ार कविता को निगल
नहीं सकता’
से)
बाज़ार चाहे भी तो भाषा के बिना ज़िन्दा नहीं रह
सकता जबकि भाषा की प्रकृति में वह अन्तर्निहित शक्ति होती है कि वह बाज़ार के साथ
भी ज़िन्दा रहे और बाज़ार के बिना भी ज़िन्दा रह सके। (अजित राय द्वारा किए गए
साक्षात्कार ‘विज्ञापन की भाषा
कविता के लिए चुनौती है’
से)
उपभोक्ता समाज को टी वी, रेडियो, कॉस्मेटिक्स और
संचार के आधुनिक साधन चाहिए। कविता सबसे बाद में चाहिए, या फिर नहीं चाहिए। ऐसा एक
समाज हमने बनाया है। जैसा समाज हम बनाएँगे, उसी के अनुसार कला और साहित्य की क़ीमत
तय होगी। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। (अभिज्ञात द्वारा किए गए
साक्षात्कार 'समकालीन कविता के
बीच व्यापक पारिवारिक समानता है'
से)
उपभोक्ता - संस्कृति में कविता बेकार की
चीज़ समझी जाने लगी है। मनोरंजन के अन्य साधन मनुष्य की स्वाद - वृत्ति को बहुत
आसानी से संतुष्ट कर सकते हैं। कविता के आनन्द तक पहुँचने में समय लगता है।
संक्षिप्त मार्ग से चलकर उस आनन्द को पाया नहीं जा सकता। उपभोक्ता - संस्कृति के लोगों
के पास समय कम है। ……
अत: जब तक समाज के ढाँचे
में परिवर्तन नहीं होगा,
तब तक
कविता को यह नियति झेलनी पड़ेगी।
(मिथिलेश
श्रीवास्तव द्वारा किए गए साक्षात्कार ‘लिखना
चुप रहने के विरुद्ध एक निरन्तर लड़ाई है’ से)
भाषा
- नीति
भाषा - नीति के बारे में एक बात मुझे हमेशा लगती
है कि हम हिन्दी की बात में थोड़ी शक्ति तभी पैदा कर सकेंगे, जब सिर्फ़ हिन्दी की
बात न करें - भारतीय भाषाओं की बात करें। अंग्रेज़ी से अकेले हिंदी नहीं लड़ेगी,
अंग्रेज़ी से सारी भारतीय भाषाएँ मिलकर लड़ेंगीं। …… भारत की सारी भाषाएँ
राष्ट्रभाषाएँ हैं। हिन्दी ही सिर्फ़ राष्ट्रभाषा है, यह मानना भी एक खंडित सत्य
होगा। संपर्क भाषा के रूप में का एक अलग महत्व है और शेष भाषाओं से उसकी स्थिति
भिन्न है, लेकिन जहाँ तक राष्ट्रभाषा का सवाल है, यदि हम यह मान लें कि सिर्फ़
हिन्दी ही राष्ट्रभाषा है तो ध्वनि यह निकलती है कि बाकी भाषाएँ इस राष्ट्र की
भाषाएँ नहीं हैं। (दुर्गाप्रसाद गुप्ता
द्वारा किए गए साक्षात्कार 'भारतीय कविता को
संश्लिष्ट कविता होना चाहिए'
से)
साहित्य
और मीडिया
मीडिया का डर एक व्यर्थ का डर है। यह अभिव्यक्ति
का एक सशक्त माध्यम है और अब ज़रा उसका प्रसार बढ़ा है। वह साहित्य के लिए एक जोख़िम
है, ऐसा नहीं मानता मैं। साहित्य और कला की सबसे बड़ी ताक़त यह होती है कि वह हर एक
चीज़ को अपनी खाद बना लेता है। अत: आज मीडिया को भी विषय बनाकर साहित्य लिखा जा
सकता है और ऐसे लोग भी हैं, जो इसके माध्यम से पनप रही अपसंस्कृति को खाद बनाकर
बड़ा साहित्य रच सकते हैं। साहित्य की यह ताक़त कि वह हर चीज़ को खाद में बदल ले, बड़ी
ताक़त है। मीडिया को भी इस रूप में पचाने की ताक़त साहित्य रखता है, कला रखती है,
ऐसा मेरा विश्वास है। (धर्मेन्द्र त्रिपाठी
द्वारा किए गए साक्षात्कार 'आज बुद्धिजीवी वर्ग
अप्रासंगिक होता जा रहा है'
से)
आज
की कविता
आज के नए कवि व्यापक जनवादी मूल्यों से जुड़े हैं, जो अपने लिए कविता
का नया ढाँचा,
नए
मूल्य और नई भाषा खोज रहे हैं। आज की कविता व्यापक स्तर पर मानवीय संबन्धों से
जुड़ी है,
इसमें
सिर्फ़ निजता की खोज नहीं है।
(अनिल
जनविजय व भारत यायावर द्वारा किए गए साक्षात्कार 'आग और रोटी का रिश्ता' से)
आज की कविता एक ख़ास तरह के विशेषीकरण की दिशा
में बढ़ती चली गई है। वो अनुभव का विशेषीकरण हो या टेक्नीक का विशेषीकरण हो। सारे
समाज में जब विशेषीकरण हो रहा हो तो कविता इससे वंचित नहीं रह सकती। लेकिन जरूरत
इस बात की है कि अपनी सारी विशिष्टताओं के साथ वह बार - बार समाज के अधिकाधिक
वर्गों के सामने आए। वे न समझें, तब भी आए। उपेक्षा करें, तब भी आए। विश्वास है,
कि दस - बीस आने पर एक ख़ास तरह का प्रशिक्षण उस वर्ग के लोगों के कानों का, आँखों
का होगा। …… तब शायद वह कविता को किसी हद तक ग्रहण करने की स्थिति में होगा। (अभिज्ञात द्वारा किए
गए साक्षात्कार 'समकालीन कविता के
बीच व्यापक पारिवारिक समानता है'
से)
मुद्रित पाठ को उच्चरित पाठ में बदलने की चुनौती
आज के कवि को स्वीकार करनी चाहिए और न समझे जाने का ख़तरा उठाकर भी बड़े समुदाय तक
अपनी बात को पहुँचाने की कोशिश करनी चाहिए। (सदानन्द शाही द्वारा किए गए
साक्षात्कार ‘समकालीन हिन्दी
कविता के सामने मुद्रित पाठ को उच्चरित पाठ में बदलने की चुनौती है’ से)
यह सच है कि हिन्दी समाज में कविता लगभग हाशिये
पर है। ऐसा कहते हुए पीड़ा भी होती है कि आज की हिन्दी कविता उस हद तक भी समाज की
जरूरत एवं उसकी अभिरुचि का हिस्सा नहीं बन सकी, जिस हद तक छायावादी कविता बन
सकी थी। इसका बड़ा कारण यह है कि कविता में एक ख़ास तरह का विशेषीकरण उसके ढाँचे, अंतर्वस्तु और रचना - प्रक्रिया में आ गया
है। आज की कविता शुद्ध रूप से पाठ्य कविता बन गई है जबकि उसकी प्रकृति में ही
निहित है कि वह जितनी पाठ्य उतनी ही श्रव्य होगी। कविता को लगातार ज़िन्दा रहने के
लिए समाज की आँख एवं कान दोनों का विषय बनना चाहिए। (अजित राय द्वारा किए गए
साक्षात्कार ‘विज्ञापन की भाषा
कविता के लिए चुनौती है’
से)
शब्द
व कविता का भविष्य
मैं शब्द के अस्तित्व को लेकर चिन्तित नहीं हूँ
क्योंकि उसकी उच्चरित शक्ति में मुझे विश्वास है, पर यह ख़तरा ज़रूर देखता हूँ
कि लिखित शब्द की पहुँच का दायरा कम हुआ है यानी साहित्य का पाठक वर्ग सिकुड़ा है।
कुछ लोकप्रिय साहित्य
- रूपों
को छोड़ दें तो गंभीर साहित्य की स्थिति लगभग यही है। …… जैसे - जैसे समाज के समग्र
विकास की अवधारणा और उससे जुड़ी हुई प्रक्रिया बलवती होती जाएगी, वैसे - वैसे 'शब्द' अपने श्रोता के और
निकट होता जाएगा। पर यह इस बात पर निर्भर करता है कि सामाजिक परिवर्तन की कारक
शक्तियाँ आगे कौन
- सी
दिशा लेती हैं और इसके भीतर के विधेयात्मक तत्व कितने प्रभावशाली सिद्ध होते
हैं। (देवेन्द्र चौबे द्वारा किए
गए साक्षात्कार 'आज़ादी के बाद का
समाज और साहित्य'
से)
अभिव्यक्ति के सारे माध्यम जहाँ निरस्त या
समाप्त हो जाते हैं,
शब्द
वहाँ भी जीवित रहता है। मुझे मानवीय शब्द की गरिमा में विश्वास है। आज भारतीय लेखक
के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह शब्दों की दुनिया में अपने ठेठ भारतीय शब्द
की विलक्षण पहचान को कैसे बनाए रखे। (देवेन्द्र
चौबे द्वारा किए गए साक्षात्कार
'आम
आदमी मेरे लिए कोई अमूर्त धारणा नहीं है' से)
कविता चली जाती है या चली जाएगी, यह सोचना ही
गलत है। कविता रहती है और वह लगभग पत्थर पर उगने वाली घास की तरह होती है जो पत्थर
को तोड़कर भी उग आती है, इसलिए वह रहेगी ही। (दुर्गाप्रसाद गुप्ता द्वारा
किए गए साक्षात्कार 'भारतीय कविता को
संश्लिष्ट कविता होना चाहिए'
से)
कविता के भविष्य के प्रति मैं आज भी निराश नहीं
हूँ। यह मानना कि कविता नष्ट हो जाएगी, एक प्रकार का ‘अप - डर’ है। …… कविता केवल
उसी दिन निरस्त हो सकती है, जिस दिन किसी विस्फोटक से मानव - मन से भाषा को उड़ा
दिया जाएगा। भाषा का होना कविता के होने की गारंटी है। (हेमलता द्वारा किए गए
साक्षात्कार 'मेरे लिए मेरा गाँव
स्मृतियों का महाकोश है'
से)
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