उमेश
चौहान: हर
कवि की कविता लिखने की शुरुआत किन्हीं विशेष परिस्थितियों के बीच होती है। आपकी
कविता की शुरुआत किस माहौल में हुई?
केदारनाथ
सिंह: जब
मैंने लिखना शुरू किया तब देश आज़ाद हो चुका था। मेरा मानना है कि आज़ादी का मिलना
एक बड़ी घटना थी, जो हमारे पूरे सामाजिक जीवन को प्रभावित करने जा रही थी और उसने
ऐसा किया भी। उसके बाद के लगभग एक दशक अर्थात् लगभग 1960 तक, जिसे हम नेहरू काल भी
कह सकते हैं, उसमें हम लोग थोड़ी उम्मीद के साथ चलते रहे। मैंने उस दौर में
‘अनागत’ शीर्षक से एक कविता लिखी थी। वह,
‘जो नहीं आया’ उस पर केन्द्रित थी। वह आता भी है और नहीं भी आता, कुछ इस तरह की स्थिति
का चित्रण था उसमें। मुझे लगता था कि वह आ भी नहीं रहा है, जा भी नहीं रहा है। उम्मीद
तो कर रहे हैं कि कुछ नया होने जा रहा है, लेकिन हो कुछ नहीं रहा। लेकिन इस बारे
में मुझे और शायद पूरे देश को पहला बड़ा झटका 1962 में लगा। चीन - भारत संघर्ष एक
बड़ी घटना थी जिसने हमारी पूरी सोच को प्रभावित किया। बहुत सारे हवाई किले, जो
हमारे राजनेताओं ने बनाए थे, वे टूट गए। मैं आदरणीय पंडित नेहरू को इस बात के लिए
साधुवाद दूँगा कि चीन के आक्रमण के बाद उन्होंने साहसपूर्वक रेडियो पर इस बात को
स्वीकार किया कि हम एक कल्पना - लोक में रह रहे थे और हमने पहली बार एक बड़े
झटके को महसूस किया। वह एक हवाई किला था। एक बड़े नेता की यह स्वीकारोक्ति सबसे
चकित कर देने तथा झटका देने वाली थी कि ‘अरे हम इतने समय तक सचमुच स्वप्न - लोक
में थे, जो ध्वस्त हो गया।’
उस समय
इस पर मैंने 'धर्मयुग' में 'सन साठ के बाद की हिन्दी - कविता' शीर्षक से एक टिप्पणी
लिखी थी,
जिसमें
पहली बार भारतीय मानस के मोह - भंग की चर्चा की थी। उसके बाद का दौर अनेक प्रकार
की घटनाओं का दौर रहा, राजनीतिक स्तर पर और सामाजिक स्तर पर भी और उनसे हिंदी - कविता
जुड़ती चली गई। हिन्दी - कविता प्रत्यक्षत: नक्सल आंदोलन से जुड़ी। प्रत्यक्षत:
इसलिए कि कुछ कवि ऐसे थे, जो बाकायदा उस विचारधारा को न सिर्फ मानते थे बल्कि
सक्रिय रूप से उसमें भाग लेने का भी प्रयास कर
रहे थे। यह उस मोह - भंग के बाद की स्थिति थी। सामाजिक जीवन में और हमारी
पूरी आर्थिक संरचना में कोई बहुत मूलभूत परिवर्तन तो आया नहीं था। बड़े- बड़े बाँध
बने, बाँधों से लोगों का उजड़ना शुरू हुआ, विस्थापन होना शुरू हुआ। यह कुछ ऐसी
घटनाएँ थीं, जो उस समय उतनी भयावह नहीं लगती थीं। मेरे जैसे लोगों को उस समय लगता
था कि विकास की कुछ कीमत तो चुकानी पड़ेगी ही। लेकिन आज मुझे लगता है कि विकास शब्द
को पुनर्परिभाषित करने की जरूरत है। यह शब्द आज एक 'मिसनॉमर' - सा लगता है। हमने इस
शब्द को इतना पीटा है और विकास के नाम पर इतना कुछ किया है, जिसका विकास से कोई
वास्ता नहीं है। कितने सारे लोग इससे
प्रभावित हुए हैं, प्रताड़ित हुए हैं, अपने स्थान से च्युत हुए हैं, उन्हें
अपनी जमीन, अपना घर - बार
छोड़ना पड़ा है। ऐसे लोगों की एक बड़ी जमात है। यह विकास नहीं है। विकास कहीं किसी
के लिए हो रहा होगा। लेकिन आमजन के लिए यह शोषण का ही निमित्त था।
उमेश
चौहान: विकास
के इस छलावे को हिन्दी कविता ने किस प्रकार से पहचाना और उसका साहित्य के उस दौर
पर क्या प्रभाव पड़ा?
केदारनाथ
सिंह: विकास
की इन विसंगतियों को हिन्दी - कविता में उस दौर के दो लोगों ने देखा। सबसे पहले
मुक्तिबोध ने। उनकी कविताएँ बड़ी शक्तिशाली थीं। भाषा भी अद्भुत थी। कहा जाए तो
कल्पना लोक के बरक्स एक लौह - भाषा उन्होंने गढ़ी। उसमें उन्होंने अपनी
कविताएँ लिखीं। उनकी भाषा से लगता था कि जैसे उन्होंने कल - कारखानों की भाषा को
समाविष्ट कर लिया हो कविता में। उन्होंने उस भाषा में बहुत ही अद्भुत कविताओं का
सृजन किया। आज़ादी के बाद हिन्दी - कविता
में पहला बड़ा परिवर्तन मुक्तिबोध ही लाए। उसके बाद धूमिल इसमें शामिल हो गए।
धूमिल मेरे लिए एक विस्मयजनक कवि हैं। मैंने उनकी आरम्भिक कविताएँ भी पढ़ीं और
सुनी थीं। उनमें कहीं ऐसे किसी विलक्षण कवि का कोई चिन्ह नहीं दिखाई देता था,
जैसे बाद में वे हो गए। समय के साथ उनकी कविता में एक अद्भुत विकास हुआ। उन्होंने
इतनी बड़ी छलांग लगाई, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। इतनी बड़ी छलांग वे इस
वजह से लगा सके कि समय उसके पीछे अपना काम कर रहा था। वे समय को समझने वाले कवि
थे। उन्होंने समय को पकड़ा और उसके सामने उन्होंने अपना कविता लिखने का पुराना
तरीका उतारकर रख दिया। हमारे सामने एकदम से धूमिल का नया व्यक्तित्व उभरा। उन्होंने
समाज को झकझोरकर रख दिया। इस प्रकार उस समय एक ओर एक बड़े स्तर पर मुक्तिबोध थे
और दूसरी तरफ मुक्तिबोध से कम समय के लिए सामने आए, लेकिन अपने ढंग से बेहद सामर्थ्यवान
कवि, धूमिल थे। शायद हिन्दी - कविता प्रतीक्षा कर रही थी ऐसे झटकों की। किसी भी परिवर्तन
के लिए एक झटका मिलना जरूरी होता है।
उमेश
चौहान: स्वातंत्र्योत्तर
काल के प्रारंभिक दौर में ‘तीसरा सप्तक’ के कवि हिन्दी - कविता की अगुवाई कर रहे
थे और प्रयोगवादी कविता व नई कविता अपनी अलग पहचान स्थापित करने में जुटी थी। ऐसे
में आपको एक अलग दिशा में बढ़ने की प्रेरणा कैसे मिली?
केदारनाथ
सिंह: जब
छायावाद के बाद प्रगतिशील आंदोलन आया तब प्रेमचंद ने कहा कि हमें सौन्दर्य के
प्रतिमान बदलने होंगे। उस समय की कविता अपनी परम्परा से बाहर निकलने का प्रयास तो
कर रही थी, लेकिन निकल नहीं पाई थी। कविता की दिशा को वास्तव में बदला मुक्तिबोध
और धूमिल ने। मेरा यही मानना है। बाद में नागार्जुन का जो विकास है, वह विलक्षण
है। कालान्तर में नागार्जुन भी मुक्तिबोध की तरह ही हिन्दी-कविता के शीर्षस्थ
परिवर्तनकारी कवि के रूप में स्थापित हो गए। केदारनाथ अग्रवाल व त्रिलोचन भी महत्वपूर्ण
काम कर रहे थे। यह सब लोग नई कविता के समानान्तर कुछ नया व परिवर्तनकारी करने की
उत्तेजना से भरे हुए थे। इनसे मुझे यह प्रेरणा मिल रही थी कि जो भी नया कर सकते
हो, जो भी तोड़ - फोड़ कर सकते हो, वह करो। मैं यह नहीं कहता कि मुझे नई कविता से
कोई प्रेरणा नहीं मिल रही थी, बिल्कुल नहीं कह सकता। उनके भीतर भी चेतना थी।
किन्तु नागार्जुन व त्रिलोचन जैसे लोग एक नई जमीन की खोज कर रहे थे। जब नई कविता
के रूप में उनके सामने एक चुनौती आई तो उन्होंने उसके बरक्स एक नई तरह की कविता
खड़ी की, जो बहुत ही सच्ची (हालांकि इस तरह के विशेषण से कविता को समझा नहीं जा
सकता) और सशक्त कविता थी। इस प्रकार नागार्जुन और त्रिलोचन जैसे कवियों ने एक
समानान्तर कविता की धारा सृजित की। मैं इस परिवर्तन का साक्षी रहा हूँ। त्रिलोचन
मेरे काव्य-गुरु रहे हैं। अद्भुत व्यक्तित्व था उनका। वे मेरे छात्रावास में भी
आए थे। ‘भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा कल’ जैसी कविता ने मुझे हिला कर रख दिया
था। जैसे कोई कोड़ा मार रहा हो। मैं विचार करता रह गया कि त्रिलोचन जैसा विद्वान
कवि अपने बारे में एक ऐसा बयान क्यों दे रहा है, वह भी पारम्परिक शालीन भाषा को
छोड़कर, ठेठ सड़क की भाषा में। यहाँ त्रिलोचन भिखारी नहीं हैं, भिखारी तो समाज है,
जिसके पास अब कुछ बचा नहीं है। उस दौर में मेरे जैसे नवागत कवि को ऐसे ही अनेक
झटके लगे और मैं एक अलग दिशा में बढ़ता चला गया।
उमेश
चौहान: उस
समय के प्रमुख कवियों से अलग प्रारम्भ में आपने केवल गीत लिखे? इसका कोई विशेष
कारण था? बाद में आपने गीत लिखना क्यों छोड़ दिया?
केदारनाथ
सिंह: मैंने
अपनी कविता की यात्रा गीतों से शुरू की थी। उसका कारण यह था कि मैं लोक-गीतों से
बहुत प्रभावित था। गाँव से आया था, इसलिए लोक-गीतों की गूँज मेरे भीतर थी। उनमें
जो लयात्मकता थी, वह मुझे बहुत प्रभावित करती थी। गाँव का माहौल भी मुझे खींचता
था। खेत, पगडंडियाँ, नदी और गाँव का पूरा परिवेश मेरे साथ जुड़ा हुआ था। जब मैं
गाँव छोड़कर बनारस आया तो वह भी एक बड़े गाँव की तरह ही लगा, लेकिन फिर भी वह एक शहर
था। वहाँ आकर एकदम से गाँव के जिस परिवेश को छोड़कर मैं आया था, उसके प्रति मेरे
भीतर एक अद्भुत आकर्षण बढ़ा। उस बोध अथवा उस नये अनुभव के भीतर से सबसे पहले मेरे
गीत पैदा हुए और मैंने कुछ गीत लिखे। हालांकि मैंने ज्यादा गीत नहीं लिखे हैं।
मुझे एक बात बहुत जल्दी ही समझ में आ गई कि सिर्फ गीतों से काम नहीं चलने वाला
है। बाद में 1960 के दशक में मैंने
गालिब की गजलें पढ़ीं। उर्दू के गीत ही हैं ग़ज़लें। उनका एक शेर है, ‘बकद्रे शौक
नहीं, ज़र्फ़े तंग्नाए ग़ज़ल। कुछ और चाहिए वुसक मेरे बयाँ के लिए।’ जब इतनी महान
ग़ज़लें लिखने के बाद गालिब जैसा महान युगदृष्टा शायर यह कह रहा हो कि ‘कुछ और
विस्तार चाहिए’ तो मेरी आँखें खुल गईं। गालिब को लगा था कि ग़ज़ल का कलेवर पर्याप्त
नहीं था। वह छोटा पड़ रहा था। जैसे बहते हुए जल के लिए पात्र छोटा पड़ जाता है।
स्पष्ट था कि वह जो कहना चाह रहे थे उसमें फैलाव था, विस्तार था, जिसके लिए किसी
और फार्मैट की जरूरत महसूस हो रही थी उन्हें। हिन्दी में गीत छायावाद से आये थे।
मुझे उन गीतों की एक रूढ़ि पसन्द नहीं आ रही थी कि गीत की जो टेक होती है, अर्थात
पहली पंक्ति, वह बाद की सारी पंक्तियों को डिक्टेट करती है। उसका स्थान पूरी
कविता में लगभग एक डिक्टेटर की तरह होता है। मुझे यह कविता की स्वाभाविक
रचना-प्रक्रिया का स्वरूप नहीं लगा। इसीलिए मैं गीतों से हट गया। मैंने गीतों को
तोड़ना शुरू किया। कभी इस परंपरा का निर्वाह करता, कभी उसे छोड़ देता। भक्तिकाल के
कवियों ने तमाम पद लिखे हैं। उनमें बड़ी आजादी थी, छूट थी। वो लोक के निकट थे और
लोक से प्रेरणा लेते थे। गीत को अगर ज़िन्दा रहना है, तो लोक से जुड़कर ही ज़िन्दा
रह सकता है वह। रवीन्द्रनाथ टैगोर के गीत अगर आज भी गाए और पढ़े जाते हैं, तो
उसका सबसे बड़ा कारण यह है, कि उनके गीत लोक-परंपरा से प्रेरणा लेते हैं। टैगोर ने
लोक-परंपरा से प्रेरणा लेते हुए, नई भाषा का आविष्कार किया, नई लय खोजी। वे जहाँ
भी किसी नई लय को सुनते थे, उसे अपनी कविता में पकड़ने की कोशिश करते थे। वे बहुत
संवेदनशील थे और अपनी आँख - कान हमेशा खोलकर रखते थे। हमारे पूर्ववर्ती हिंदी
कवियों ने भी बहुत से गीत लिखे थे। लेकिन उनकी भाषा आदर्श भाषा नहीं थी। वह भाषा
कविता के लिए आदर्श हो ही नहीं सकती थी। हमारे एक बड़े कवि, भवानी प्रसाद मिश्र,
कहते थे कि वे प्रसाद, निराला आदि को पढ़ ही नहीं सकते, क्योंकि उनकी भाषा बड़ी
विचित्र है। वह बड़ी सजी-बजी भाषा थी, संस्कृत - बहुल भाषा थी। उसको निराला ने
बदला। दो निराला हैं, एक आरम्भिक निराला और दूसरे बाद के निराला। बाद के निराला
एकदम बदले हुए हैं। ‘जूही की कली’ से ‘कुकुरमुत्ता‘ तक की परिवर्तन की लंबी छलांग
निराला जैसा कवि ही लगा सकता था। उन्होंने ‘बांधो न नाव इस ठांव’ जैसे गीत लिखे,
जो लोक - गीत जैसे ही हैं। यह सब समझ जाने के बाद गीत मुझे अपर्याप्त लगने लगे। जो
सांचा हिंदी की परम्परा में गढ़ा गया था, उसको तोड़ने की क्षमता मुझमें नहीं थी।
इसलिए मैंने गीत का चक्कर छोड़ दिया तथा कुछ और करने की ठान ली। मैंने गीत की लय
ले ली और उसको आजकल की कविता की भाषा में ढालने की कोशिश की। इसलिए मेरी कविता में
थोड़ी लयात्मकता बनी रही। मैंने लय के मूलभूत तत्व को छोड़ा नहीं। वह मेरे मुक्त
छंद में भी है। गद्यवत कविता में भी है। मुझे लय ने कभी नहीं छोड़ा और मैंने भी
उसे कभी नहीं छोड़ा।
उमेश
चौहान: आपके
विभिन्न काव्य - संग्रहों में छंदोबद्ध कविताएँ भी शामिल हैं। क्या छंद के प्रति
आपको अभी भी लगाव है?
केदारनाथ
सिंह: मेरे
अधिकांश संग्रहों में कुछ छंदोबद्ध कविताएँ भी हैं। अभी जो मेरा नया कविता - संग्रह
आया है, 'सृष्टि पर पहरा' उसमें भी हैं। छंद
को मैंने कभी छोड़ा नहीं। छंद कोई आसमान से थोड़े ही टपका है, वह जनता की विरासत
है। वह लोक से आया है। छंद को हम लोक से जोड़कर ही ज़िन्दा रख सकते हैं। लोक गाँव
में होता है और शहर में भी होता है। उससे जोड़कर ही हम छंद को मजबूत कर सकते हैं।
उसी से नये-नये छंद पैदा होते हैं। यह काम होना ही चाहिए। यह काम नहीं किया गया,
यही दु:खद है। मुझे लगता है कि छंद और बेछंद, यह कविता के दो पांव हैं। कविता
दोनों में ही होती है और दोनों को साथ - साथ ही चलना चाहिए। छंद को छोड़ नहीं देना
चाहिए। उसकी शक्ति का भरपूर सदुपयोग करना चाहिए, क्योंकि वह जनता की विरासत है।
मैं देखता हूँ कि आज छंद के बारे में कुछ रूढ़िया बन गई हैं। जब ऐसी रूढ़ियाँ बने
तो हमें आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा दिए गए संदेश पर गौर करते हुए थोड़ा ठहर
जाना चाहिए और फिर से लोक के पास जाना चाहिए और फिर वहाँ से प्रेरणा लेकर कविता को
रिचार्ज करना चाहिए। मुझे लगता है कि आज इसी बात की जरूरत है। मुक्तिबोध ने एक
बात कही थी कि कविता एक नया रूप धारण कर रही है, जिसमें हो सकता है कि गद्य ही छंद
बन जाए। आज गद्य तो छंद बन ही गया है। गद्य में वह शक्ति थी और कविता को अंतोगत्वा
वहाँ जाना ही था। मैं तो कहता हूँ कि कविता ने गद्य में सेंध लगाई है और गद्य के
भीतर जो काव्य - तत्व छिपा हुआ था, उसे वहाँ से ढूँढ़ निकाला है। चोरी की है
उसने। यह बहुत सुखद चोरी है। छंद शास्त्रकारों ने नहीं बनाए हैं। उन्होंने तो
बाद में छंदों की मात्राएँ गिनी और उनका शास्त्र गढ़ा। हमारे भक्त-कवियों ने लोक
- तत्वों का समावेश करके नए - नए छंदों में महान कविताएँ लिखी हैं।
उमेश
चौहान: आपने
अपनी कविता को एक नए साँचे में ढालकर हिन्दी - कविता को एक नई दिशा दी। इसके मूल
में क्या था, अर्थात यह सब कैसे हुआ?
केदारनाथ
सिंह: मेरी
काव्य - रचना में आया बदलाव अनजाने ही हो गया। कविता का नया ढांचा गढ़ने का मैंने
कोई सचेत प्रयास नहीं किया। यह समय के दबाव के तहत अपने आप होता चला गया। मुझे यह
जरूर लगता था कि प्रगतिशील धारा की जो दिशा थी, कविता का उससे थोड़ा अलग स्वरूप
बने। मैं नई कविता की धारा में तो शामिल नहीं था। मैं उसके हाशिए पर था। मैं देख
रहा था कि दूसरी तरफ क्या हो रहा है। नई
कविता ने जो कुछ भी हमें दिया था, मैं उसे भी साथ लेकर चलना चाहता था। मैंने कभी
परम्परा को नकारा नहीं। उसमें जो कुछ भी अच्छा है उसे हमेशा साथ लेकर चलने की
कोशिश की। नए ढंग से बात कहने का एक स्वरूप बने, मेरे लिए यही सर्वोपरि था। यह
मेरा सौभाग्य था कि मैं एक लंबे समय तक शहर से परे रहा। गाँव की बात नहीं कर रहा
हूँ। एम.ए. तथा पीएच.डी. करने के बाद मुझे
छोटे से एक कस्बे में नौकरी मिली, जो गाँव की तरह ही था। वहाँ मैं 13 - 14
साल रहा। मैंने वहाँ लोगों को करीब से देखा। गाते हुए लोगों को भी देखा और भूख से
संतप्त चेहरों को भी देखा। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को बुलाया था एक बार
मैंने वहाँ और उनको उस इलाके में ले गया था। अगर मैं उनके साथ न गया होता तो भारत
का असली चेहरा न देखा होता। भारत के उस चेहरे को मैंने तब तक देखा ही नहीं था। वह
बहुत ही पिछड़ा हुआ तराई का इलाका था। उन दृश्यों की विद्रूपता ने मुझे फिर से
कविता के स्वरूप के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया।
उमेश
चौहान: आप
अन्तर्राष्ट्रीय कविता से निरन्तर सम्पर्क में रहे हैं। क्या आपकी कविता के नए
स्वरूप के पीछे विश्व - साहित्य का भी कुछ प्रभाव है?
केदारनाथ
सिंह: विश्व - कविता
के साथ मेरा रिश्ता हमेशा बदलता रहा है। आरम्भ में डिलन थॉमस व दूसरे यूरोपीय
कवियों की तरह की कविताएँ लिखने का मन करता था। किंतु पहली बार जिस कवि की कविता
पढ़कर मुझे एक बड़ा झटका लगा, वह ब्रेख़्त थे। नेरुदा भी मुझे अच्छे लगते थे, लेकिन
उन्होंने उतना झटका मुझे नहीं दिया, जितना ब्रेख़्त ने दिया। वह उनकी एक सीधी - सपाट,
लेकिन उत्कृष्ट कविता थी। मुझे कई बार आश्चर्य होता था कि ब्रेख़्त कैसे उस तरह
की कविताएँ लिख लेते थे। मेरा मानना है कि संदेश देते हुए कविता लिखना ख़तरे का काम
है, क्योंकि कविता का काम संदेश देना नहीं है। लेकिन दो कवि लगातार यह ख़तरा उठाते
हैं। वे सीधे संदेश देते हैं। पहले थे तुलसीदास और दूसरा मैंने ब्रेख़्त को पाया।
वे सीधा संदेश देते हैं, किंतु फिर भी कविता पैदा कर देते हैं। जब मैंने पहली बार
1964 में ब्रेख्त को पढ़ा तो उनसे बहुत ही ज्यादा प्रभावित हुआ।
उमेश
चौहान: आज
की कविता पर यह आरोप लगाया जाता है कि वह प्रभावहीन है, पाठकों में रुचि नहीं
जाग्रत करती और उनकी स्मृति में ज्यादा दिन नहीं टिकती। इस बारे में आपका क्या
विचार है?
केदारनाथ
सिंह: जो
कविताएँ एक खास तरह की बोल - चाल
की लय में लिखी जाती हैं, उनसे सामान्यजनों को जुड़ने में कठिनाई नहीं होती है।
जब तक पाठक या श्रोता कविता को अपनी आवाज़ में रिक्रिएट नहीं करेगा, तब तक वह उससे
जुड़ेगा नहीं। अभी कुछ दिन पहले जे.एन.यू. की एक गोष्ठी में कोई सज्जन मेरी एक
कविता के बारे में कुछ बोल रहे थे। उन्होंने मेरी कविता ‘पानी की प्रार्थना’ उद्धृत की। वे वहाँ
जिस तरह से उसे पढ़ रहे थे, उससे उस कविता का जरा - सा भी संप्रेषण नहीं हो रहा
था। कविता को कविता की तरह पढ़ने की कला भी सिखाई जानी चाहिए। यह परम्परा से आता
है। यह कवियों का काम भी है। उन्हें स्कूल व कॉलेजों में जाना चाहिए और क्लास
में कविताएँ पढ़कर सुनानी चाहिए। जब बच्चे आज की कविता की लय से जुड़ेंगे तभी
जाकर वे आज की कविता की संवेदना से, उसके परिवेश से, उसकी अंतर्वस्तु से, उसके प्राणतत्व से
जुड़ पाएँगे। तभी जाकर कविता और सामान्यजन के बीच की दूरी कम हो पाएगी। हमारी यह
जो खड़ी बोली है, इसने भी पिछले लगभग डेढ़ - दो सौ साल में एक
लंबी छलांग लगाई है। इसी अवधि में इसने कई युग पार किए हैं। दुनिया की किसी भी
भाषा ने इतने कम समय में कई युग पार नहीं किए होंगे। लेकिन इसमें हम घाटे में भी
रहे हैं। घाटा यह रहा है कि हमारी सारी महान परंपरा की भाषा छूट गई है। आज सूर - तुलसी
की भाषा हमारी भाषा नहीं रही। विद्यापति की भाषा हमारी भाषा नहीं रही। रीतिकाल के
कवियों की भाषा हमारी भाषा नहीं रही। हमने एक नई भाषा गढ़ी है। हमने पुरानी भाषाओं
से बहुत सारी प्रेरणा तो ली, लेकिन अपनी अलग भाषा गढ़ ली।
उमेश
चौहान: तो
क्या कविता को पारम्परिक छंदों और भाषा की ओर लौटना चाहिए? क्या ऐसा कहीं और भी हो
रहा है? जैसे पहले दिनकर की कविताएँ लोकप्रिय थीं और इधर के दशकों में दुष्यन्त की
ग़ज़लें, क्या आज की कविता में भी ऐसा ही कुछ बदलाव आना चाहिए?
केदारनाथ
सिंह: नई
भाषा को गढ़ने में उर्दू के कवियों ने होशियारी से काम लिया है। उन्होंने ग़ज़ल
की परम्परा को कायम रखा। वह मंच से भी जुड़ी थी। हमने अपने सारे मंच खो दिए।
ग़ज़ल आज भी ज़िन्दा है। उसमें नए सरोकारों की बातें भी की जा रही हैं। यह विचार
का विषय होना चाहिए कि ग़ज़ल का गेय स्वरूप आज भी क्यों प्रासंगिक है, किन्तु
हमारे गीत का नहीं। ग़ज़ल जिन्दा ही नहीं है, उसमें नई से नई बात कहने की ताकत भी
बरकरार है। हिन्दी में उभरे नवगीत भी यह काम नहीं कर पा रहे। वे भी आज ऋतु - चक्र
बनकर रह गए हैं। नवगीत वह काम नहीं कर पाएगा जो ग़ज़ल कर रही है, क्योंकि उसका भी
एक ढर्रा बन गया है और उसमें वह लचीलापन नहीं आ पाया है, जो उर्दू ग़ज़ल में है। कुछ
करने के लिए उसे इस ढर्रे से बाहर आना होगा। आज जिसे हम समकालीन कविता कहते हैं,
इसकी भी रूढि़याँ बन गई हैं और वह भी एक विशेषीकृत संरचना में ढलकर रह गई है, जिसे
सामान्य पाठक नहीं पढ़ पा रहा। इससे पाठक को कैसे जोड़ा जाय यह एक बड़ा सवाल है।
उर्दू आज भी पाठक से जुड़ी हुई है। इसे उर्दू कवियों ने जोड़ लिया है। वे भी खड़ी
बोली का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन जब वे अपनी ग़ज़ल या नज़्म पढ़ते हैं तो वह
लोगों तक पहुँचती है, क्योंकि उन्होंने परंपरा के अच्छे तत्वों को छोड़ा नहीं
है। वे अपनी ग़ज़लों में उनका इस्तेमाल करते रहते हैं। हिन्दी के कवियों ने भी
ग़ज़ल की विधा को अपनाया। दुष्यन्त मेरे दोस्त थे। वे मुख्यत: गीतकार थे,
लेकिन उन्हें ग़ज़ल की विधा ने आकर्षित किया। उन्होंने उससे ताकत अर्जित की और
नए ढ़ग से बातें करते हुए अपना सिक्का जमा दिया। भारतेन्दु से लेकर प्रसाद व
निराला तक, हमारे सारे आधुनिक कवियों ने ग़ज़लें लिखी हैं। शमशेर और त्रिलोचन ने
भी लिखीं। यह ग़ज़ल की ताकत है कि वह बार - बार आपको अपनी ओर खींच लेती है। हमने
गीत में वह ताकत क्यों नहीं पैदा की? हमारे भक्त - कवियों ने इसे कर लिया
था। हमारी खड़ी बोली का गीत इस काम को क्यों नहीं कर पाया, इस प्रश्न से जूझने
की कोशिश कम ही की गई है। इसे किया जाना चाहिए। जब तक ऐसा नहीं किया जाएगा और
कविता गाहे - बगाहे छंद का इस्तेमाल नहीं करेगी, तब तक वह मजबूत नहीं होगी। यह काम
बांग्ला जैसी भाषाओं में आज भी हो रहा है। यह जरूरी नहीं है कि सारी की सारी कविता
छंद की ओर लौट जाए। लेकिन छंद की जो शक्ति जनता से आई थी, उसे ऐसे एकदम छोड़ देना
ठीक नहीं। जितनी भी महान कविताएँ हैं, उनमें भी छंद है। मुक्तिबोध की कविताओं में,
यहाँ तक कि ‘अंधेरे में’ जैसी बहुचर्चित कविता में भी छंद है। इस कविता
में अन्तर्निहित लय वर्णवृत्त को तोड़कर उसे छंदमय बना देती है। हमें छंद की
शक्ति को नए स्तर पर आविष्कृत करना चाहिए। हम यही नहीं कर पा रहे हैं। उर्दू
वाले इसमें हमसे आगे हैं। उन्होंने इसे साध्य बनाया है।
उमेश
चौहान: पिछले
दो दशकों में पूरे विश्व की सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक संरचना में व्यापक बदलाव
आया है और भारत भी इससे अछूता नहीं रहा है? इस परिवर्तन का आप कविता पर किस तरह का
प्रभाव पड़ता देख रहे हैं?
केदारनाथ
सिंह: मैं कोई आर्थिक विशेषज्ञ नहीं हूँ, लेकिन 1990 के बाद के
विकास को मैं काफी हद तक दुर्भाग्यपूर्ण मानता हूँ। सोवियत संघ का विघटन भी विश्व
व्यापार संगठन जैसी संस्था बनने के पीछे एक बड़ा कारण रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण
यह भी है कि जो एक महान प्रयोग वहाँ हो रहा था, वह विघटित हो गया। इस विघटन ने ही
विश्व में वर्तमान परिस्थितियों के पैदा होने का मौका दिया। इसके पहले सरकार में
उदारीकरण शब्द का नाम भी नहीं था। हिन्दी
का सबसे अनुदार शब्द है, उदारीकरण। किसके प्रति है यह उदारता? जब भी मैं इस शब्द को सुनता हूँ तो यह मुझे परेशान करता है। सामाजिक
विकास के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है, उससे आर्थिक विषमता की खाईं बढ़ती ही जा रही
है। समाज में इन्सानों के बीच की खाईं भी। इस दौर में जो कुछ भी हो रहा है, वह
दुर्भाग्यपूर्ण है। मैं इसे एक चुनौती भरा दौर मानता हूँ। कवि इससे टकरा तो रहा
है, अनेक प्रकार के प्रयास कर रहा है और इस पर चोट भी कर रहा है। आप नए कवियों की
कविताएँ पढ़े तो आपको उनमें इस पर चोट करने वाली पंक्तियाँ जरूर मिलेंगीं। कवि इस
विषय से जुड़ रहें हैं। लेकिन किसी भी टक्कर से जो आग निकलती है, वैसी आग अभी
नहीं दिखाई पड़ रही है। लेकिन मैं निराश होने वाला व्यक्ति नहीं हूँ। यह आग एक
दिन दिखाई पड़ेगी। मैं इस दौर के विकास शब्द के आगे एक प्रश्नचिन्ह लगाना चाहता
हूँ। मैं अभी भी अपने आपको संतुष्ट नहीं कर पाया हूँ कि हमें क्यों आगे बढ़कर
आदिवासियों के विकास का जिम्मा लेना चाहिए? कौन होते हैं हम? हमने जो आज तक किया है क्या उससे वे सुखी हैं? हम
उनको अपने तरीके से विकसित होने देने में मदद करें, अधिक से अधिक हम उनकी रोजमर्रा
की समस्याएँ हल करने में मदद करें और उन्हें अपने ढ़ंग से अपने समाज में जीने
दें, यही हमारा काम होना चाहिए। आज हम उन्हें अपने पैमाने से नापते हैं और यह
पैमाना वह है, जो इस उदारीकरण के जमाने में बना है। यह एक दु:खद स्थिति है। इसी से
पैदा हुआ था नक्सल आंदोलन। आज का माओवादी आंदोलन भी इसी स्थिति की उपज है। मैं
हिंसा का विरोधी हूँ। मुझे हिंसा की स्थिति बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण लगती है समाज के
लिए। जो हिंसा का सहारा ले रहे हैं, उनका तरीका मुझे कतई पसन्द नहीं। लेकिन कुछ
लोगो में सच्ची पीड़ा भी जरूर होगी, वरना वे जंगल में क्यों
रहते? वहाँ रहकर वे निश्चित ही सुखी नहीं हैं। एक जगह से
दूसरी जगह भागते फिरते हैं। हमने ही उनको इसका अवसर दिया है। ऐसी ही और भी तमाम
विसंगतियाँ हैं। देश में जो आदिवासी आंदोलन और बहुत सारे नए - नए विमर्श पैदा हो
रहे हैं, ये सब इसी की उपज हैं।
उमेश
चौहान: हिन्दी
- कविता में 1990 के बाद तेजी से स्त्री - विमर्श, दलित - विमर्श
व हाशिए पर अलग - थलग
पड़े मानव - समूहों की चिन्ताएँ उभरी हैं। आप इन विभिन्न विमर्शों के उभार को तथा
उन पर केन्द्रित साहित्यिक आलोचना को किस दृष्टि से देखते हैं?
केदारनाथ
सिंह: मैं इन सारे विमर्शों को 1990 के बाद के सामाजिक -
राजनीतिक परिवर्तनों से जोड़कर देखना चाहूँगा। ये सब अपना - अपना हक मांग रहे हैं,
जो उचित है। यह लोकतंत्र का विकास है। लोकतंत्र का जिस तरह का विकास राजनीतिक
व्यवस्था कर रही है और जो संसद व कार्यपालिका के माध्यम से सामने आ रहा है, वह
शंकित करता है। उसके भीतर से जो असंतोष पैदा हो रहा है, उसी असंतोष की उपज हैं ये
सारे आंदोलन। मैं इन्हें इसी स्वरूप में देखता हूँ और इन विमर्शों का काफी हद तक
मैं स्वागत करता हूँ। लेकिन साहित्य को विमर्शों में घटाकर नहीं देखा जा सकता।
उस पैमाने पर हम साहित्य का मूल्यांकन कर ही नहीं सकते। यह आदिवासी कविता है,
इसलिए अच्छी है, यह पैमाना ठीक नहीं। चूँकि यह अच्छी कविता है, इसलिए अच्छी
कविता है, यही पैमाना उचित होगा। यह अमुक आदमी की कविता है, इसलिए अच्छी कविता
है, ऐसा नहीं होना चाहिए। कविता या कोई भी रचना, रचना की कसौटी पर जाँची-परखी जानी
चाहिए। उसे अलग से कोई रियायत नहीं दी जानी चाहिए। सभी कुछ खुलकर मैदान में आना
चाहिए। हमें कोई रियायत नहीं देगा, हम भी किसी को रियायत नहीं देंगे, ऐसा ही होना
चाहिए। कोई मेरी कविता को ख़ारिज़ करता है तो करे, यह उसका हक है। यदि उसकी बहुत
सारी बातें हमारे साहित्य में नहीं आ रही होंगी तो वह ऐसा करेगा ही। जब - जब ऐसी
परिस्थिति पैदा होती है, ऐसा होता ही है। इसी के कारण अंबेडकर जैसा महान विचारक
नेता पैदा हुआ। उनके विचारों का व्यापक प्रभाव पड़ा। मुझे नहीं लगता कि आज के
पूरे साहित्यिक परिदृश्य पर किसी अन्य राजनीतिक नेता का इतना बड़ा कोई प्रभाव
पड़ा होगा, जितना अंबेडकर का पड़ा। मैं विमर्शों और विमर्शों से जुड़े साहित्य को
इसी नज़रिए से देखता हूँ।
उमेश
चौहान: दलित
विमर्श की दृष्टि से गद्य - साहित्य
की अपेक्षा हिन्दी - कविता
पीछे रही है। आप इसका कोई विशेष कारण पाते हैं?
केदारनाथ
सिंह: जहाँ तक दलित विमर्श का सवाल है, गद्य में उसका ठीक -
ठाक स्थान है। आत्मकथाओं में आदिवासी - लेखन सर्वश्रेष्ठ रूप में सामने आ रहा
है। वहाँ वह हमें ज्यादा छूता है, क्योंकि वहाँ उनकी अपनी बात है। वहाँ दलित
लेखक सीधे अपनी वे बातें कहते हैं, जिनसे हम इतने परिचित नहीं हैं। गाँव में जब मैं
उनके निकट से गुजरता था और उनको मरे हुए पशुओं का चमड़ा उतारते देखता था तो यही
समझता था कि वे चमड़े को निकालकर उससे जूते या वैसे ही अन्य कोई सामान बनाते
होंगे। लेकिन मैं वह नहीं जानता था, जो बाद में तुलसीराम की आत्मकथा में पढ़ा कि
वे उस मरे हुए पशु का मांस भी निकालकर मोहल्ले में बांटते थे और वह खाया जाता था।
यह मेरे लिए शर्म से जमीन में गड़ जाने वाला एक झटका था। यह झटका देने वाली सच्चाई
मुझे उनकी आत्मकथा से ही पता चली। ऐसी ही आत्मकथाएँ और भी है इस परम्परा में।
ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियाँ भी बड़े अच्छे रूप में सामने आईं हैं। उनकी
कविताओं ने भी अच्छा योगदान दिया है। और
भी अनेक लेखक व कवि यह काम कर रहे हैं। मैं इसे विमर्श नहीं कहूँगा। केवल एक
प्रवृत्ति मानूँगा। यह साहित्य की एक नई धारा है। कोई चाहे तो इसे विमर्श कह सकता
है। यदि हम इस विमर्श से निकली हुई सौन्दर्य - संरचना के आधार पर दलित - साहित्य
का मूल्यांकन करेंगे तो वह अधूरा मूल्यांकन होगा। मूल्यांकन के आधार को तो
सामान्यीकृत बनाना ही पड़ेगा। वह हमें भी उस पर कसेगा और उन्हें भी। मूल्यांकन का
ऐसा कोई आधार बन नहीं पाया है अभी तक। लेकिन मैं यह जरूर कहूँगा कि एक लंबी दूरी
तय कर लेने के बाद मराठी दलित कविता ने अब एक स्थिर राह पा ली है और वह लौटकर अपनी
पूरी कविता की परंपरा को, जो दलितों ने नहीं लिखी है, उसको भी समझने की कोशिश कर
रही है। मर्ढेकर ने मराठी में वह काम किया है जो हमारे यहाँ अज्ञेय जैसे कुछ कवि
कर रहे थे। वे मराठी के बड़े सशक्त कवि थे। इधर उन पर कई दलितों ने किताबें लिखी
हैं। उन्होंने पाया है कि उनकी कविता में दलित-चेतना के कई तत्व मौजूद हैं, बस
उसे खोजा नहीं गया था। वे इसे खोजने का प्रयास कर रहे हैं। संत ज्ञानेश्वर व तुकाराम
पुराने भक्त कवि थे, जिनकी अपनी एक परंपरा है। समकालीन दलित आलोचक उनकी कविता में
अपनी चेतना की जड़ें तलाश रहे हैं। इस तरह का एक संबंध वहाँ साहित्य में तब स्थापित
हो रहा है, जब उन्होंने स्वयं विकास की लंबी यात्रा तय कर ली है। मेरी एक बार नामदेव
धसाल से मुलाकात हुई थी। वे पुराने कवियों के बारे में, परंपरा के बारे में ढेर
सारी बातें करते रहे। उन्होंने तुकाराम के बारे में, ज्ञानेश्वर के बारे में तमाम
बातें की। इस प्रकार मराठी की दलित - कविता में परंपरा से एक बहुत ही सुखद संवाद
हो रहा है। ऐसा संवाद हिन्दी की दलित - कविता में कहीं नहीं है। शायद आगे कभी
हो। दलित - लेखन के संदर्भ में हिन्दी - कविता का विकास अभी उतना ज्यादा नहीं
हुआ है। लेकिन यह एक दिन होगा, इसकी मैं बहुत उम्मीद रखता हूँ। क्योंकि अनुभव का
एक ऐसा खज़ाना उनके पास है, जो हमारे पास नहीं है। सिर्फ उसको अधिक से अधिक भाषा
में ढाल पाने की विधियाँ उनको खोजनी है, और एक विधि नहीं, अनेक विधियाँ। उनको खोजने
के संघर्ष में ही वे लगे हुए हैं। इसमें से ही मुझे आगे चलकर एक बड़े दलित -
साहित्य के पैदा होने की संभावना दिखती हैं।
उमेश
चौहान: स्त्री - विमर्श
आज की कविता के केन्द्र में है। समाज में स्त्रियों की समस्याओं के प्रति काफी
जागरूकता भी आयी है। आपकी इस बारे में क्या धारणा है?
केदारनाथ
सिंह: स्त्री
भी हमारे समाज में दलितों ही काफी हद तक शोषित रही है। अब वह मुक्त होने की कोशिश
कर रही है। लेकिन अभी भी तमाम सामाजिक वर्जनाएँ हैं जो काम कर रही हैं। इसके अनेक
भेद - उपभेद
हैं। जब समाज में जनतांत्रिक चेतना पैदा हुई तो उन्हें भी लगा कि उनके भी कुछ हक
हैं, अधिकार हैं। वे अपने अधिकारों से
वंचित हैं। यह अधिकार की चेतना उनके भीतर प्रबल होती जा रही है। संपत्ति में
अधिकार, परिवार में अधिकार, कार्य - क्षेत्र में अधिकार, समाज व राजनीति में
अधिकार आदि - आदि। निजी इच्छाओं का दमन, पितृसत्ता के प्रभाव के कारण समाज में
पिछड़ जाना, शादी करके घर बैठ जाना, इन सब बातों के प्रति उनके भीतर एक चेतना जगी
है। समाज की इन असंगतियों को मिटाने के लिए वे आगे आई हैं। उन्होंने काफी कुछ
लिखा है। कई स्त्री रचनाकारों ने बहुत अच्छी कविताएँ लिखी हैं। कहानियाँ तथा
उपन्यास भी लिखे जा रहे हैं। मैं फिर कहूँगा कि इस महत्वपूर्ण अभियान को मैं
केवल विमर्श में घटाकर नहीं देखना चाहता। विमर्श के कारण जो सबसे ज्यादा क्षति
हुई है, उसको अनुभव करने वाला समाज, फ्रांस का समाज है। वहाँ इतने ज्यादा विमर्श
हुए हैं कि कविता में प्राणवन्त लेखन लगभग दब सा गया है।
उमेश
चौहान: कुछ
लोग कहते हैं कि आपने अपनी कविताओं में स्त्री विमर्श को उतना
स्थान नहीं दिया है, जितना आज के समय की अपेक्षा है। इस बारे में आप क्या कहना
चाहेंगे?
केदारनाथ
सिंह: हो
सकता है कि मेरे अपने सामाजिक परिवेश की सीमा होने के कारण ऐसा हुआ हो। मैं कोशिश यही करता हूँ कि इन सरोकारों पर
निरन्तर विचार करूँ। मेरी रचनाओं में दलित-प्रश्नों पर काफी ध्यान गया है। मेरी
पन्द्रह - बीस
कविताएँ उन्हीं के सरोकारों पर केन्द्रित हैं। स्त्रियाँ मेरे यहाँ शोषिता - प्रताड़िता
के रूप में कम आई हैं। लेकिन अन्य विविध रूपों में स्त्रियाँ भी मेरी रचनाओं में
कई जगह आई हैं। ‘एक प्रेम कविता को
पढ़कर’
कविता
में स्त्री का एक बड़ा ही मार्मिक पक्ष सामने आया है, जिसे देखा जाना चाहिए। ‘नमक’ कविता भी स्त्री -
पुरुष संबंधों पर केन्द्रित है। मेरी कविताओं में माँ के रूप में अनेक स्त्रियाँ
आई हैं, क्योंकि मैं माँ को स्त्री का आद्य रूप मानता हूँ। मेरी कविताओं में
मजदूर स्त्री का भी कई जगह चित्रण हुआ है, मसलन 'बबूल के नीचे सोता बच्चा' शीर्षक कविता। स्त्री का केवल
मध्यवर्गीय रूप ही महत्वपूर्ण नहीं है। मेरी ‘जो एक स्त्री को जानता है’ शीर्षक कविता में
स्त्री के एक अलग ही प्रकार के मानवीय रूप का चित्रण हुआ है। फिर भी यदि कोई मेरी
कविताओं में स्त्री विमर्श
की कमी का आरोप लगाता है तो मैं उसके बारे में ज्यादा कुछ नहीं कह सकता। मैं यही
कह सकता हूँ कि मेरी कविताओं में स्त्रियाँ अनेक रुपों में मौजूद हैं। मेरी हाल की
एक कविता में तो स्त्री का एकदम अलग ही रूप सामने आया है। इसमें एक गाँव में प्रवेश
करने पर एक उजाड़ - सा
घर दिखाई पड़ता है। उस घर में पहले एक स्त्री रहती थी जो सबसे लड़ती थी। वह सबसे
लड़ने वाली स्त्री अब नहीं है तो घर खाली पड़ा है। ऐसे में कवि यह प्रस्तावित
करता है कि क्यों न उस घर को एक राष्ट्रीय स्मारक बना दिया जाए, क्योंकि यह उस
स्त्री का घर है जो साहस के साथ मर्दों की दुनिया से लड़ रही थी। इस तरह के
स्त्री - विषयक और भी कई प्रसंग हैं मेरी कविताओं में।
उमेश
चौहान: आज
हमारे सामने वैश्विक स्तर पर भूमंडलीय तापीकरण, जलवायु - परिवर्तन,
रेडिएशन, जैविक आपदाओं आदि का गंभीर ख़तरा है। आपने पर्यावरण - संरक्षण के संदर्भ में
‘विद्रोह’ जैसी प्रभावशाली कविता
लिखी है। क्या आप आज की हिन्दी - कविता में इन ख़तरों के प्रति समुचित चेतना उभरते
देख रहे हैं?
केदारनाथ
सिंह: हमने
परमाणु - विकिरण
के ख़तरे को दूसरे महायुद्ध के समय प्रत्यक्ष नहीं देखा। भारत में हमने दूर-दूर से
ही उसके बारे में खबरें सुनी थीं। हमारे सामने वह भयावह सच आज भी केवल एक खबर भर
है। हम उस त्रासदी के प्रत्यक्ष भोक्ता नहीं हैं। मैंने एक बड़ी सशक्त जापानी
कविता इस संदर्भ में पढ़ी थी। उसके अनुवाद का शीर्षक ‘बीसवीं सदी की सबसे बड़ी चीख’ या कुछ ऐसा ही था।
उन्होंने उस त्रासदी को भोगा था। वह एक दाद देने वाली कविता थी। पर्यावरण की समस्या
के बारे में लोगों में आज चेतना तो है और इसका एक बड़ा कारण जापान की वह घटना भी
है। इस चेतना के पीछे वह ख़तरा भी है जो आज आसन्न लगता है। उसे साहित्य में महसूस
किया जा रहा है। ‘विद्रोह’ कविता में इसी ओर
एक इशारा है।
उमेश
चौहान: कविता
में विचार का होना आप कितना जरूरी मानते हैं? विचार की अभिव्यक्ति को किसी
विचारधारा या वाद से जुड़े होने को आप कितना महत्वपूर्ण मानते हैं? समकालीन हिन्दी -
कविता में किसी नए वाद के उदय न होने के पीछे आप क्या कारण पाते है?
केदारनाथ
सिंह: विचारधारा
अलग चीज़ है, विचार अलग। विचारधारा को एक बड़े विचारक ने छद्म - चेतना
कहा है। एक गलत विचारधारा के बावजूद कोई रचनाकार एक बड़ी रचना को जन्म दे सकता है, इसके अनेक उदाहरण विश्व - साहित्य में भरे पड़े
हैं। विचार भी गलत हो सकता है, लेकिन वह छद्म या धोखा है, ऐसा नहीं हो सकता। विचार
तत्व कविता की अनिवार्यता है। केवल भाव कविता नहीं बन सकता। कविता के भाव-बोध में
विचार भी समाहित होता है। बिना विचार के प्रगाढ़ भाव - बोध
पैदा ही नहीं हो सकता। यदि होगा भी तो वह भावुकता में परिवर्तित हो जाएगा। भाव का
अर्थ भावुकता नहीं है। भाव में विचार भी शामिल रहता है और ऐन्द्रिय बोध भी। दोनों
से मिलकर ही भाव बनता है। इसलिए हमारी परंपरा में तो विचार भाव से अलग है ही नहीं।
कालिदास की कविता में उनका विचार भी आता है और ऐन्द्रिय - बोध
भी, सब कुछ घुला - मिला
है। यही घुला - मिलापन
कविता में होना चाहिए। कोरा विचार काफी नहीं है, लेकिन विचारहीन होना भी ठीक नहीं।
विचार किसी न किसी रूप में कविता में होना ही चाहिए। कवि की अगर दृष्टि नहीं है,
तो वह देखेगा क्या और हस्तक्षेप क्या करेगा। हर रचना बनी - बनाई
व्यवस्था में एक हस्तक्षेप होती है। किसी ने एक नई कविता लिखी, जैसे आपने आल्हा
लिखा है, तो वह आज की पूरी संवदेनाशीलता के प्रति एक हस्तक्षेप है और उसमें बहुत
सारे व्यंग्य भी हैं। हर अच्छी रचना एक हस्तक्षेप होती है। आप हस्तक्षेप कर
रहे हैं, लेकिन उस हस्तक्षेप की दिशा क्या है, आपकी उसमें दृष्टि कौन सी है, वह
नुक़्ता कौन सा है जो इशारा कर रहा है हमारी पूरी व्यवस्था पर, यह सब देखना बहुत
ही महत्वपूर्ण होता है। जितनी भी हमारे समय की महान कविताएँ लिखी गई हैं, आप उनकी
विचारधारा को गलत कह सकते हैं और उनसे टकराने के लिए स्वतंत्र हैं। लेकिन आपको यह
भी ध्यान में रखना चाहिए कि हर कवि अपने ढंग से सोचता है, अपने विचार रखने की
कोशिश करता है। मुक्तिबोध ने भी यही किया। अज्ञेय ने भी किया। आप उनके विचारों को
अस्वीकार करने के लिए स्वतंत्र हैं। सभी रचनाकार अपने ढंग से सोचते हैं। जो
स्थिति होती है, वे उसका एक समाधान खोजने का प्रयास करते हैं। कोई नहीं खोज पाता
है, कोई खोजने के निकट पहुँच जाता है। मैं विचारधारा या किसी वाद का समर्थन नहीं
करता, क्योंकि हमारी विचारधाराएँ राजनीतिक संगठनों से जुड़कर रह गई हैं या फिर उस
तबके से आई हैं जो या तो प्रतिक्रियावादी हैं या विचारधारा का विरोध करते हैं।
विचारधारा का विरोध भी एक विचारधारा है। सभी विचारधाराओं की सीमाएँ होती हैं। उनके
पीछे काम करने वाली कई तरह की शक्तियाँ होती हैं, चाहे वे राजनीतिक संगठन हों या
दूसरे कोई कारक तत्व हों, जो समाज के पीछे या समाज के भीतर काम कर रहे हों।
विचारधारा यदि संगठनबद्ध हो तो वह आपको कहीं न कहीं बांधती भी है। रचनाकार
को एक आज़ादी चाहिए। आज़ादी, एक दायित्व - बोध के साथ, उच्छ्रंखलता
नहीं। उसके भीतर निरन्तर एक सामाजिक चेतना सक्रिय रहनी चाहिए। एक ऐसी आज़ादी लेखक
के लिए बहुत जरुरी है। वह कई बार संगठन नहीं दे पाते। पार्टियाँ नहीं दे पातीं।
इसलिए पार्टी, संगठन, वाद, इन सबसे मुक्त होकर चलना ही सृजन की स्वाभाविक राह है।
उमेश
चौहान: आज
का साहित्य देश में कोई नया जनांदोलन जगाने का काम नहीं कर पा रहा। क्या यह सच है
कि आज की कविता जनोन्मुख न होने के कारण समाज की सोच में परिवर्तन लाने का माध्यम नहीं
बन पा रही?
केदारनाथ
सिंह: यह
सच है कि आज देश में कोई जनांदोलन नहीं है। मैं कई बार यह कह चुका हूँ और यहाँ फिर
दोहराता हूँ कि आज पूरे परिदृश्य में या समाज में नए आंदोलन क्यों नहीं पैदा हो
रहे इस पर विचार होना चाहिए, विशेषकर समाज में। क्योंकि आंदोलन समाज में पहले
पैदा होते हैं और साहित्य में बाद में। आज न कोई नया आंदोलन समाज में है, न साहित्य
में। एक ठहराव की स्थिति है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। आज के विमर्श बस खरोंच लगाते
हैं असंगतियों पर, उन्हें तोड़ नहीं
पा रहे। यह किसी एक वर्ग का नहीं, पूरे समाज का सवाल है और इस पूरी सामाजिक स्थिति
के भीतर से अभी ऐसी ताकतें उभरती हुई नहीं दिखाई दे रहीं, समाज में भी नहीं
और साहित्य में भी नहीं, जिनके भीतर से
चेतना की नई चिनगारी फूटे और उससे कोई नया आंदोलन आए। आंदोलन आने चाहिए। आंदोलन
प्राण देते हैं साहित्य को। उसे नई दिशा देते हैं। आज कोई आवागार है ही नहीं, जो
आगे बढ़कर चल दे। आवागार चूँकि समाज में नहीं है, इसलिए साहित्य में भी नहीं
दिखाई पड़ रहा है। एक शून्यता है। आंदोलनों को रोकने या थामने में या उनके थोड़ा
आगे बढ़ने पर उनकी बांह पकड़कर रोक लेने में इलैक्ट्रानिक मीडिया की बड़ी भूमिका
है। यह मेरी अपनी समझ है। हमको इससे मुक्त होकर सोचना पड़ेगा। इलैक्ट्रानिक
मीडिया जो राय बना देता है, वही समाज की राय बन जाती है और किसी प्रकार की राय
देने की जरुरत ही नहीं रह जाती। इसमें विचार कहाँ है। गुण-दोष पर सोचने के लिए वह
अपनी इतनी ज्यादा सामग्री लाद देता है समाज पर, कुछ सच और अधिकतर झूठ, कि हम
सोचने के लिए स्वतंत्र ही नहीं रह जाते। इस बार के चुनाव के दौरान तो यह बड़े पैमाने
पर हुआ है। यह तो ठीक है कि वह एक दृश्य-श्रव्य माध्यम है तथा हम उसके जरिए दूर
तक पहुँच रहे हैं। कहने के लिए यह भी कहा जा सकता है कि आज हिन्दी -
कविता
पूरे विश्व में प्रसारित हो रही है, लेकिन विदेश में बैठा कौन - सा पाठक या अध्येता
इसको पढ़ रहा है, इसका कोई आकलन हुआ है क्या? यह भी एक भ्रम है। इन
कविताओं को वहाँ वही पढ़ेगा जो हिन्दीभाषी
होगा, अंग्रेज़ी वाला नहीं पढ़ेगा।
उमेश
चौहान: हमारा
लोकतंत्र एक जटिल दौर से गुजर रहा है, जहाँ लोग एक बड़ा परिवर्तन चाहते हैं लेकिन
उनकी सोच को समुचित नेतृत्व नहीं मिल पा रहा। आप इसे किस दिशा में जाता देख रहे
हैं?
केदारनाथ
सिंह: यह
निश्चित ही चिन्ता का विषय है कि आज देश में कोई बड़ा आंदोलन क्यों नहीं उठ रहा? हमारा समाज एक करवट
लेता हुआ क्यों नहीं दिखाई पड़ रहा? हम केवल चुनाव तक ही सीमित होकर क्यों रह गए
हैं?
इस
ढीले-ढाले जनतंत्र का क्या होगा, जो अपनी सारी शक्ति अंतत: तथाकथित चुनाव से ही
अर्जित करता है?
मैं
चुनाव का विरोध नहीं कर रहा हूँ, किन्तु संकट यही है कि वह पूरी तरह से जनता के
विचारों को प्रतिबिम्बित नहीं कर पाता है। उसका जो भी परिणाम आता है, वह कैसे आता
है, यह सभी लोग जानते हैं। उसके पीछे कई तरह के तत्व काम करते हैं। हमारा समाज, धर्मों, जातियों,
वर्गों में बंटा हुआ समाज है। इसलिए मैं समझता हूँ कि मनुष्य को स्वतंत्र रुप से
सोचने के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ हमें बनानी पड़ेगी। ऐसी परिस्थितियाँ बनाने में
बुद्धिजीवी वर्ग का बहुत बड़ा हाथ हो सकता है। इसमें कवि, लेखक, कलाकार एक अग्रणी
भूमिका निभा सकते हैं। यह बड़े पैमाने पर होना चाहिए, ऐसा मुझे लगता है। मैं अग्रिम दस्ते में नहीं हूँ। उसमें हो भी
नहीं सकता। मैं बीते हुए समय का आदमी हूँ। लेकिन एक बीते हुए समय के आदमी की तरह
आने वाले समय की एक धमक सुनना चाहता हूँ। उसे कितना सुन पाता हूँ, यह अलग बात है।
लेकिन अभी तक ऐसा होता मुझे दिखाई नहीं पड़ रहा है। कई बार मुझे लगता है कि नक्सलवादी
जो कर रहे हैं, वह भले त्याज्य हो, लेकिन वे सोचने के लिए मजबूर तो कर रहे हैं।
वे झटका दे रहे हैं कि सोचो, विचार करो इस पर। तरीका गलत है उनका, लेकिन वे झटका
तो दे ही रहे हैं। मुझे लगता है कि वह समय जल्द ही आएगा जब देश की जनभावना एक बड़े
परिवर्तनकारी आंदोलन का स्वरूप ले लेगी।
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