श्रृंगार
रस की कुछ बूँदें
दहकती
छाती पर छनछनाकर
भाप
बनकर उड़ जाएँ हवा में
आज
के आलोचक को मंजूर नहीं,
टपक
पड़ें मिलन की वेदी पर
और
बह चलें भावनाओं की नदी या समुद्र बनकर
यह
भी मंजूर नहीं,
पसीना
बनकर बह जाऍं
जीवन
की कठोरता की गरमी से
और हकीकत का बयान करें
मिट्टी
को गीला कर - कर
के
यह
भी मंजूर नहीं।
आज
के आलोचक को
शायद
कोई रस ही मंजूर नहीं।
आज
का आलोचक कविता - प्रेमियों
के
स्वाद
का रस जानना - पहचानना
ही नहीं चाहता
वह
उन्हें चटाना चाहता है
बस अपने ही विचारों की चासनी
उन्हें
पढ़ाना चाहता है
बस अपने ही दिमाग से उपजा सौंदर्य - शास्त्र।
आज के आलोचक के सौंदर्य - शास्त्र
में
नींबू
का रस महत्वपूर्ण नहीं
बस उसकी मसल दी गई फांक ही महत्वपूर्ण है।
आजकल
आलोचक कविता को कविता नहीं मानता
और
जो कविता नहीं है
उसे
ही कविता सिद्ध करने पर तुला है
वह
विश्लेषक नहीं नियंता बन गया है
आज के कविगण,
आस्वादकों
के लिए कविताई करने
के बजाय
अब
आलोचकों के लिए ही
रचने
लगे हैं कविता
इससे
मरने लगी है कविता
और
रूठने लगे हैं आस्वादक
आजकल बस आलोचकों
की चाँदी ही चाँदी
है।
लेकिन
जब न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी
तो
क्या करेंगे आलोचक
कहीं
वे आलोचकों की आलोचना ही तो नहीं करने लगेंगे?
शायद
तब चुपके से कहीं
फिर जी उठेगी कविता
सोलहवीं
या बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध की तरह।
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