भूमि
की मृत्यु आसन्न मानकर
उसके लिए मरण - गीत लिख डाला
कवि ओ.एन.वी. कुरुप्प ने
क्योंकि उन्हें विश्वास था कि
नहीं जीवित बचे रहेंगे वे
भूमि की मृत्यु की उस घड़ी में
विलाप करने के लिए।
किन्तु क्या जगा सके वे
भूमि को मौत के मुँह की ओर धकियाते हुए
हम भोगासक्त, मरणातुर भू - पुत्रों में
कोई भी पश्चात्ताप या पुनर्चिन्तन का भाव?
कैसे हो चले हैं हम,
रवि - चन्द्र उदयाकांछी,
प्राची की ऊर्जाओं से प्रेरित भारत - जन,
सूर्यास्त पर जागने व चन्द्रास्त पर सोने के आदी?
पश्चिम के रक्ताभ आकाश के पुजारी?
यह कैसा विद्रूप है?
यदि यह प्रतिकार है,
उसके लिए मरण - गीत लिख डाला
कवि ओ.एन.वी. कुरुप्प ने
क्योंकि उन्हें विश्वास था कि
नहीं जीवित बचे रहेंगे वे
भूमि की मृत्यु की उस घड़ी में
विलाप करने के लिए।
किन्तु क्या जगा सके वे
भूमि को मौत के मुँह की ओर धकियाते हुए
हम भोगासक्त, मरणातुर भू - पुत्रों में
कोई भी पश्चात्ताप या पुनर्चिन्तन का भाव?
कैसे हो चले हैं हम,
रवि - चन्द्र उदयाकांछी,
प्राची की ऊर्जाओं से प्रेरित भारत - जन,
सूर्यास्त पर जागने व चन्द्रास्त पर सोने के आदी?
पश्चिम के रक्ताभ आकाश के पुजारी?
यह कैसा विद्रूप है?
यदि यह प्रतिकार है,
तो
किस पर हो रहा प्रत्युपकार?
या फिर आग में कूद पड़ने को आतुर पतंगों जैसी
बस एक अंधी दौड़ है?
भूमि की आसन्न मृत्यु के प्रति
कवि द्वारा चेताए जाने पर भी
निश्चेत बने रहने की ही ठाने भू - पुत्रो!
डूब मरो लिप्सा के इस चुल्लू भर पानी में!
इस मरणासन्न भूमि के लिए
दीर्घकाल से आँसू बहाने वाले
या फिर आग में कूद पड़ने को आतुर पतंगों जैसी
बस एक अंधी दौड़ है?
भूमि की आसन्न मृत्यु के प्रति
कवि द्वारा चेताए जाने पर भी
निश्चेत बने रहने की ही ठाने भू - पुत्रो!
डूब मरो लिप्सा के इस चुल्लू भर पानी में!
इस मरणासन्न भूमि के लिए
दीर्घकाल से आँसू बहाने वाले
कवि
ओ.एन.वी. कुरुप्प भी नहीं बहाएँगे
अब
एक भी बूँद आँसूतुम्हारी इस आत्महत्यापरक निश्चेतना पर!
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