शाम तक
प्रतीक्षा थी
बादल छोड़ देंगे
सूरज को अपनी गिरफ़्त से
भले ही थोड़ी देर
के लिए
और नहला देगा वह
हमें
फिर अपनी रोशनी
से
पर पता ही न चला
कि
कब डूब गया हमारी
उम्मीदों का सूरज
क्षितिज पर
गहराए बादलों के पीछे
ज़िन्दगी का सच
ही यही है कि
नहीं हो पाता
इसमें सभी कुछ पूरा
हमारी अपनी चाहत
के अनुरूप।
कभी - कभी घटित भी
हो जाता है यहाँ
बहुत कुछ हमारी
अपनी इच्छाशक्ति के अनुरूप
मसलन,
मोहनदास करमचंद
गाँधी का राष्ट्रपिता बनना
लालबहादुर
शास्त्री का इस देश का प्रधानमंत्री बनना
भ्रष्टाचार में
आकंठ डूबे इस देश में
एम. श्रीधरन का
हर प्रोजेक्ट समय से पूरा होना।
क्यों नहीं होता
आखिर इस देश में
लोगों का समय से
दफ़्तर पहुँचना
तय समय तक
कुर्सी पर बैठकर अपना काम पूरा करना
बच्चों को पढ़ाई
के लिए कोचिंग की जरूरत न पड़ना
देश के
कर्णधारों का हमेशा संयत ढंग से बोलना
नागरिकों का
नियमों के उल्लंघन से विमुख रहना
देश का पेट
पालने वाले किसानों का खुद खाली पेट न सोना।
शायद हमारी
इच्छाशक्ति के अभाव में ही
नहीं होता यह सब
कुछ यहाँ
और हमारे देश की
उम्मीदों का सूरज
यूँ ही डूबता
रहता है असमय
हमारे ही द्वारा
सृजित कुहासे में
अचानक फिर चमक
उठने की प्रत्याशा के बीच।
No comments:
Post a Comment