कविताओं पर एक उड़ती नज़र डालते हुए
आलोचक जी कवि से बोले,
"बड़े घटिया कवि हो!'
"सो तो हूँ, आपकी परेशानी?"
"साहित्य का कूड़ा बढ़ा रहे हो!"
"बढ़ने दो, आप तो बस मोती वाली सीपियाँ ही सँभालो!"
"लेकिन सामने तो यही सब बिखरा है,
किताबें जैसे कूड़ादान लगती हैं।"
"आज की यह दुनिया ही कूड़ादान है,
आप न जाने कैसे पारखी हो?"
"लिखो मेरी बला से,
कुछ भी लिखते - सुनाते रहते हो!"
"इसका भेद तो तुलसी बाबा बता ही गए हैं
सदियों पहले -
'निज कबित्त केहि लाग न नीका' कहकर।"
"समझ गया कि नहीं मानोगे,
कविता की अरथी सजाकर ही रहोगे!"
"छोड़ो जी! यह बताओ,
कविता की अरथी उठाए जाने पर
उसको काँधा देने में आपको खुशी होगी या दु:ख?"
आलोचक जी चकराए -
कहाँ फँसा रहा है उन्हें यह कवि,
वे तपाक से बोले, -
"जरा - मरण की चिंता से परे होता है आलोचक,
वह ज़िंदा कवियों को मुर्दा और मुर्दा कवियों को
ज़िंदा करने में ही
सार्थक समझता है अपने जीवन को,
इसलिए ऐसा निरर्थक प्रश्न मत करो!"
"ठीक है, फिर तो निर्लिप्त मन से
चिता पर जलाई जा रही कविता को
मुखाग्नि देने की तैयारी करो
और गद्य की बहती हुई गंगा में
इसकी राख को तिरोहित कर दो!"
"वाह मित्र! भला ऐसा मैं क्यों करूँगा?
फिर शान से मैं यहाँ - वहाँ
किस बात की आलोचना करता घूमूँगा?"
"अच्छा? तब तो अन्योन्याश्रित संबंध है हमारा आपका!
चलो, मिल - जुलकर जोड़ते
हैं विंध्य और हिमाचल के तार
और टटोलते हैं इस देश के जन - गण का
मन!"
आलोचक जी से कवि का यह संवाद
एक जरूरी योजना के सूत्रपात की तरफ बढ़ता दिखा,
तभी अचानक आलोचक जी लपककर उठ लिए,
"मुझे नहीं खंगालना तुम्हारा यह कूड़ादान
मुझे नहीं जानना तुम्हारी निष्पत्तियों के बारे
में
क्योंकि मेरे पास पहले से ही सजा है
गूढ़ विचारों से सने तमाम अबूझ निष्कर्षों का
पिटारा।".
आलोचक जी उठकर जा रहे थे
कवि अपनी कविता की संभावित मृत्यु के क्षणों को
यादकर
दु:खी मन से उनके पीछे - पीछे जाने की सोच रहा था
अचानक ही आकर हवा के एक झोंके ने
उसके गालों पर एक दुलराती - सी चपत लगाई
कवि सहसा मुसकरा उठा
फिर धीरे - धीरे वह उलटी दिशा में चलता हुआ
अपनी मद्धिम - सी आवाज़ में गुनगुनाने लगा,
"मनै कै सुनियो, मनै मां गुनियो, कवि
तुम कह्यो मनै कै बात,
जग का भावै या ना भावै, बेमन कहेउ न कौनिउ बात।"
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