पहला दिन
आज की कविता के झरोखे में बैठकर
कल की कविता की दशा और दिशा पर बहस होती रही जयपुर में आज
‘कविता
समय 2012’ की चौखट पर दिन भर,
देश में विकसे लिबरल लोकतंत्र की पूर्णता को
स्वीकार करने को तैयार नहीं थे गिरिराज किराडू
उन्हें चिन्ता थी कविता के भीतर के लोकतंत्र की,
या उनकी, जो छूटे जा रहे थे हाशिए पर
आज की कविता के विम्बों में समाविष्ट हुए बिना,
हिमांशु पन्ड्या सशंकित थे
उपनिवेशवाद के विरुद्ध की गई राष्टवादी मुख़ालफ़त के बाद
पिछले कुछ दशकों में उभरे सांस्कृतिक
राष्ट्रवाद के परिणामों के प्रति
वे चाह रहे थे कि वैश्वीकरण के दौर में छूटे जा रहे हैं जो हाशिए पर
उनकी चीर - फाड़ करे आज की
कविता
और प्रकाश डाले उनकी मौत के कारणों पर,
केदारनाथ सिंह चाह रहे थे कि
मध्यवर्गीय संत्रास के दायरे का संक्रमण करे कविता
क्योंकि बिना उसके इस चौहद्दी को लाँघे नहीं मिलना था
आगे कोई भी सुविचारित रास्ता,
मंगलेश डबराल का मानना था कि
हाशिए का समाज तो आज के लोकतंत्र का बाय - प्रॉडक्ट है
और आज की कविता आत्म - मंथन से ऊपर
उठकर
इन्हीं हाशिए पर छूट गए लोगों की ओर जाने की यात्रा भर है।
अशोक कुमार पांडेय इन्हीं प्रश्नों के उत्तर तलाशने में जुटे थे कि
आखिर ये हाशिए पर छूटे जा रहे लोग हैं कौन?
ये जीवन - संघर्ष में
थके - हारे
सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले लोग हैं
या भाषा, लिंग, जाति, संप्रदाय
एवं भौगोलिक स्थिति के आधार पर
हाशिए पर डाल दिए गए लोग?
उनका मानना था कि अगर इन लोगों की बात करने वाली कविता,
अकविता मान ली जाती है तो आलोचकों की
बला से,
कविता के अप्रासंगिक हो जाने से बेहतर होगा
आज की कविता का अकविता बनकर ऐसी बात करना,
बात मीरा की कविता को हाशिए पर डाले जाने की उठी तो
इब्बार रब्बी ने खड़ी बोली की कविता को ही कविता मानने पर
सवालिया निशान उठा दिया
पर किया क्या जाय,
बृज, अवधी, राजस्थानी, भोजपुरी, सभी
की थाती अपने भीतर समेटे
आज जो भाषा खड़ी है हमारे सामने
उसे नकार देने की बात सोचने पर भी तो
बड़ी
परेशानी आती है सामने कि
यदि
आज की भाषा पर भी संशय करने लगेंगे
तो फिर कहाँ से लाए जायेंगे शब्द?
इसलिए
क्या इस भाषा को हाशिए पर डाल देना उचित होगा?
खैर, दिन के उत्तरार्ध तक इतना तो तय किया ही जा चुका था कि
आज की कविता प्रतिरोध की कविता है,
और अनिवार्य रूप से आज की कविता विचारों के संप्रेषण की कविता है
हालाँकि, मोहन श्रोतिय ने सावधान जरूर किया कि
विचारों का संप्रेषण किसी विचारधारा की वकालत न बने तो अच्छा है,
लेकिन अंत में सविता सिंह ने डंके की चोट पर ऐलान कर दिया कि
आज की कविता एक सदियों पुरानी सांठ - गांठ के परिणामों से उपजी है
और अब वह किसी के भी रोकने से रुकने वाली नहीं है,
वह न तो मदन कश्यप के आधुनिकतावादी आदर्शों का पर्याय बनेगी,
और न ही लीलाधर मंडलोई की पारिवेशिक भाव - विह्वलता से पूरित
किसी कवि - सहज डार्क - रूम के सहारे आंदोलित होगी,
वह तो उत्तर - मार्क्सवादी चिन्तन की राह पर आगे बढ़ती हुई
पूंजीवाद एवं सेक्सुआलिटी जैसे मूलभूत मामलों में
अपने कुछ नए ही मुक़ाम तलाशेगी,
भले ही मंगलेश जी अंत तक सविता सिंह की बातों से मुतमईन नहीं थे
फिर भी, अशोक कुमार पांडेय की,
“लड़
रहे हैं कि जी नहों सकते लड़े बिन” की
तर्ज़ पर
कविता की दशा और दिशा के बारे में पूरी उम्मीद बनी कि
पहले
दिन की भाँति ही दूसरे दिन भी गरम रहेगा ‘कविता समय 2012’ में
गुलाबी ठंड में डूबे
गुलाबी ही सूरत और सीरत वाले शहर जयपुर
का वातावरण,
वैसे बहस के दौरान कहना तो मैं भी चाह रहा था कि
कविता के प्रभाव के बारे में इतने ज्यादा प्रश्न - चिन्ह नहीं हैं आज
कि ज्यादा चिन्ता की जाय इसकी,
आज सबसे ज्यादा चिन्ता तो कविता की पहुँच की है,
जिसका दम घुटा जा रहा है
प्रकाशकों, आलोचकों व संपादकों की साज़िशाना अनास्था के चलते
पर कह नहीं पाया कुछ भी संकोच व समयाभाव में
वहाँ चल रही उस बहस के बीच,
वैसे भी, कवि का मन तो कविता में डूबकर ही कुछ कहता है,
शायद इसीलिए पहले दिन ज्यादातर कविगण नहीं दिखाई दिए
वहाँ मौजूद होते हुए भी किसी भी बहस में हिस्सा लेते
हालाँकि कविता - पाठ के जरिए बखूबी दर्ज़ कराई
कई नामी-गरामी कवियों ने अपनी उपस्थिति वहाँ
और सार्थक बनाया पहले दिन की शाम के उन क्षणों को
जब युवा कवि प्रभात एवं वरिष्ठ कवि इब्बार रब्बी को सम्मानित किया
कविता समय 2012 के आयोजकों ने
‘कृष्णायन’ में गूँजती जोरदार तालियों के बीच।
दूसरा दिन
जयपुर में कविता समय 2012 के
दूसरे दिन के वक्तव्य लंबे जरूर थे
लेकिन बहस का माहौल पुरजोर रहा
कविता की जाँच - पड़ताल से जुड़े आज के सत्र का विषय था ही कुछ ऐसा
‘नब्बे
के बाद: कविता में प्रतिरोध और उसका असर’,
एक मौके पर वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना तो यह भी अपील करते देखे गए कि
क्यों न खाना व चाय आदि छोड़कर यह बहस दिवस - पर्यन्त
जारी रखी जाय,
विशाल श्रीवास्तव ने शुरू में ही नकार दिया इस दलील को कि
हिन्दी - पट्टी में आज कोई सक्रिय जनांदोलन नहीं है
इसीलिए समकालीन कविता में प्रतिरोध की कमी है,
उनके द्वारा साफ - साफ यह माना गया कि
गैर - प्रतिरोधी कविता मिथ्या और बेरंग होती है
लेकिन यह भी कि आज प्रतिरोध की पहचान संदेहास्पद व मुश्किल हो चली है,
वास्तव में असल मुद्दा प्रतिरोध के स्वरों के असर का नहीं है,
असल समस्या तो कविता की पहुँच की है और इस बात की कि
यह पहुँच जिन तक है, उन तक किस सीमा तक है,
संजय कुन्दन नब्बे के बाद के यथार्थ से पूरी तरह तिलमिलाए से नज़र आए,
वैश्वीकरण के इस दौर में जब हिन्दी का ठौर - ठिकाना ही लुटता नज़र आ रहा है
तब ऐसे में अगर कोई हिन्दी में कविता लिख रहा है,
तो यही सबसे बड़ा प्रतिरोध है,
अस्सी के दसक में कवियों का शत्रु स्पष्ट था
और उनके प्रतिरोध के हथियार भी जाने - पहचाने थे
किन्तु नब्बे के बाद का दुश्मन काइंया व छुपा रुस्तम है
तथा उसके ख़िलाफ़ लड़ने वालों के हथियारों की धार भी
कुछ कुंद सी पड़ गई लगती है,
बोधिसत्व व अशोक कुमार पांडेय की संचालकीय जुगलबन्दी परवान चढ़ी तो
इस बात का खुलासा भी हो गया कि
इंटरनेट पर कविताओं को नित्य पढ़ने वाले हजारों लोग हैं
और निराधार है आलोचकों एवं स्वार्थी प्रकाशकों का यह दुष्प्रचार कि
कविता अब मरणासन्न है और देश में उसके पाठकों का अकाल है,
निरंजन श्रोतिय ने पुरजोर वक़ालत की इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों की और
आगाह किया सभी को टेक्नोलॉजी को नकारने की प्रवृत्ति से बचने के लिए
वे यह कहने से भी नहीं चूके कि हिन्दी की कविता का वर्तमान संकट पश्चिम से आया
है,
जिसके तहत हम समकालीनों की आलोचना नहीं करते और सर्जनात्मक बर्ताव करने से कतराते
हैं,
राजाराम भादू प्रतिरोध के फलक को इतनी व्यापकता की ओर ले गए कि
इरोम शर्मिला के आंदोलन और निर्मला पुतुल की कविताओं का जिक्र करते - करते
जब वे प्रवासी भारतीय समाज की समस्याओं पर टिप्पणी करने लगे
तो कुछ लोगों को लगा कि जैसे वे विषय से कुछ भटक गए हों,
लेकिन वे वर्चस्व की समस्या को अलग - अलग खानों और खाँचों में देखते-देखते
यदि समानान्तर रूप से जयपुर में ही आयोजित
किए जा रहे
प्रवासी भारतीय - सम्मेलन के डेलीगेटों के वर्गीय विश्लेषण तक पहुँच गए तो
इसमें उनका विषय से भटक जाना नहीं था, यह
लोगों को थोड़ा बाद में ही समझ में आया,
चर्चा में भाग लेते हुए अनामिका पूरी तरह से काव्यात्मक रौ में नज़र आईं,
जब उन्होंने विचारों की ब्रांडिन्ग कर उन्हें ‘रेडी टु सर्व’ बनाने
की जरूरत पर बल दिया
और कविता की होम डिलीवरी करने की तैयारी का आह्वान किया
तो लगा कि जैसे उन्होंने कविता की पहुँच की समस्या का फार्मूला सामने रख दिया हो,
उन्होंने माना कि सियासी लोकतंत्र
के पतन के बीच भी
कविता में अभी भी बचा हुआ है जनतंत्र
और आज की कविता तरह – तरह के रंग समेटे
एक चटाई की तरह बिछी हुई है हमारे सामने
आज की कविता पहले के मिथकीय उलझावों को सुलझाने में जुटी है
आज की कविता कंधे पर हाथ रखकर बतियाने वाली कविता है
आज की कविता अपनी तेज चाल के साथ विधाओं की चहारदीवारी फाँदे जा रही है
आज की कविता सामने उपलब्ध तमाम विकल्पों पर एक साथ विचार करती हुई चलती है
आज की कविता उस क्षणिकता से उपज रही है, जो
व्याप्त है चारों तरफ
हमारे कार्य - क्षेत्र में, प्रेम
- व्यवहार में, सामाजिक संबन्धों में, या शायद हर एक बात में,
कविता समय 2012 के दोनों दिनों की चर्चाओं में
केवल आज की कविता की प्रासंगिकता या दुर्दशा ही नहीं थी केन्द्र - बिन्दु,
वहाँ थीं तमाम आकांक्षाएँ, तमाम
सपने, तमाम उद्विग्नताएँ, तमाम
उम्मीदें
और इसी के बीच वहाँ पर पेश की गईं
दूर - दूर से आए तमाम युवा व वरिष्ठ कवियों द्वारा अपनी बहु - आयामी कविताएँ
भी,
कुल मिलाकर कुछ बोल्ड इरादों के साथ प्रारंभ किया गया यह आयोजन
आखिरकार समाप्त हुआ कुछ बुलन्द संकल्पों के साथ
ताकि अनाम रहते हुए भी आज की कविता मज़बूती से आगे बढ़ती रहे
और रेखांकित करने में सक्षम हो अपने समय के सम्पूर्ण सरोकारों को
अभिव्यक्ति की पूरी आज़ादी एवं सामर्थ्य के साथ।
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