यह कैसी मुसीबत में डाल दिया है आपने मुझे,
प्रिय लेखक संजीव!
अपना अजीब सा नया उपन्यास,
‘रह गईं दिशाएँ इसी पार’
पढ़ाकर,
एक अजनबी से प्राणि - जगत के रहस्यमयी प्रणय - व्यवहारों
की
आपके द्वारा बेझिझक दिखाई गई जीवंत झाँकी ने
तोड़ दी हैं मेरे मन में आज तक संजोई गई
प्रेमाचार की सारी की सारी कोमल मानवीय मान्यताएँ,
मुझे तो अब मुंबई की ग्रांट रोड व कोलकाता की
सोनागाछी से लेकर
पृथ्वी पर दूर - दूर तक फैले आकर्षक समुद्री - बीचों
की ओर कदम बढ़ाते
सेक्स के भूखे सारे पुरुषों के उदर भाग के नीचे
सामान्य शिथिलता से भरे लटके रहने वाले
गुप्तांगों की जगह
स्टेम कोशाओं से परिवर्धित करके प्रत्यारोपित
किए गए
ताजादम व हरदम तने रहने वाले अंग ही नज़र आने
लगे हैं चारों तरफ।
ग़नीमत है कि स्त्रियों को बख़्श दिया है आपने
इस चिर - यौनातुरता की बेढंगी दौड़ का चित्रण
करते समय
और सीमित कर दिया है उनके मनोविकारों के
प्रस्तुतीकरण को
विकृत मातृत्व और सरोगेसी के अजीबोगरीब
सरोकारों तक
या फिर मकड़ी और राम की घोड़ी के सेक्सुअल
कैनाबलिज़्म की वीभत्सता तक ही,
हालाँकि मछुआरे - समाज के शोषण व कष्ट - पूर्ण
जीवन का चित्रण करते हुए
मत्स्य - व्यापार के माफियाओं के अन्याय के
ख़िलाफ संघर्ष का बिगुल बजाती
कतिपय दर्प - भरी मछुआरिनों की सौन्दर्य - मीमांसा
हेतु
आपने अनेक अभिनव बिम्ब - विधान भी गढ़े हैं यहाँ
- वहाँ।
कितने अनोखे रूपकों से सजाया है आपने इस
उपन्यास की विषय - वस्तु को,
किसी बड़े गर्भाशय सी दिखती रक्तिम पानी की झील,
बास मारती कसी साड़ी में उमड़ता मछुआरिन का जोबन,
अभिनेत्री डॉली पारटन के बूब्स जैसी दिखती
वेस्ट-इंडीज से इंग्लैंड में आयातित बड़े आकार
वाली हाइब्रिड प्याज,
सेक्स-परिवर्तन कराकर शाहनवाज से शाहनाज़ बन जाने के बावजूद
अतृप्त वैवाहिक जीवन जीने व पति को गुदा-मैथुन
से संतुष्ट करने के लिए अभिशप्त विषमलिंगी व्यक्ति,
चिर जीवन व यौवन पाने का फार्मूला तलाशता विकृत
मानसिकता वाला ग्लोब-ट्रॉटर उद्यमी,
जेनेटिक्स की खोजों के तमाम अमर्यादित उपभोगों
में लिप्त पूंजीशाही।
आपका उपन्यास पढ़कर तो यही लगने लगा है मुझे अब
हर पल कि
जैसे आपके पात्रों की तरह के ही काम-पिपासु
इन्सानों के ढेर सारे क्लोन
किसी सिरफिरे वैज्ञानिक द्वारा निर्मित करके
छोड़ दिए गए हैं आज
दिल्ली, एन सी आर व अन्य तमाम छोटे-बड़े शहरों की सड़कों
पर खुल्ला
रात-दिन अपने कृत्रिम पुंसत्व का धमाल मचाने के
लिए।
अचानक ही मुझमें छिन्नमूल होने जैसा ही एक
भयावह अहसास जगा दिया है आपने
और भावों से रिक्त मेरा मन दुनिया से निर्वासित
- सा महसूस करने लगा है
संभवतः इसीलिए अब इसमें घुसने की चेष्टा में
जुट गई हैं निरन्तर
आपके पात्रों की वासना और प्रजनन की सारी की
सारी अतृप्त इच्छाएँ,
जीवन के विकास की वैज्ञानिक धारणाओं व विचारों
के वे भूण
जो रखे हुए थे आपने संभालकर अपने मन के
डीप-फ्रीज़र में कई सालों से,
सहसा जैसे प्रत्यारोपित हो गए हैं आकर आज
मेरे सरोगेट मस्तिष्क में पलने और जन्म लेने के
लिए,
सचमुच ही चिकित्सा-जगत के पूंजीपतियों के दलाल
वैज्ञानिकों द्वारा रचा जा रहा है
आपके द्वारा अनोखे ढंग से वर्णित किया गया
जरूरत के अनुरूप फैलाया व समेटकर रख दिया जाने वाला
एक मारक मकड़ - जाल - सा हमारे चारों तरफ,
क्यों बुन दिया है ऐसा
यह मारक जाल आपने
अपने कैंसर-ग्रोथ से चिंचिंयाते चूहों व
क्लोन्ड बच्चों के माध्यम से आपने
आगामी संततियों को देवकी बाबू के ‘चन्द्रकांता’ के किले की रहस्यात्मकता की तरह ही
एक बार फिर से काल्पनिक रोमांच,
रोचकता, जिज्ञासा और भय से भरे हुए
किसी अनोखे साहित्यिक संसार में भटकने हेतु छोड़
देने के लिए?
जो भी हो, संजीव!
बहुत अटपटा लगा था पहले आपके उपन्यास का यह
शीर्षक मुझे
लेकिन इसे पढ़ने के बाद इसकी सार्थकता का अहसास
हो ही गया मुझे,
सचमुच अभी तो दिशाएँ इसी पार हैं मित्र!
किन्तु कल की कलुषित कथा का कोई कयास कौन लगा
सकता है यहाँ आपके सिवा
और कौन प्रस्तुत कर सकता है उसे हमारे सामने
आपसे अधिक संपुष्ट भाषा और अभिव्यंजनात्मक व
आकर्षक शैली में?
भले ही, कहीं - कहीं कुछ ज्यादा ही संकर व अश्लील होकर
यथेष्ट चौंकाती और छकाती भी है यही भाषा हमें,
दिशाओं के उस पार तक एक विहंगम दृष्टि डालकर
आने वाली जिन मुसीबतों की एक झलक दिखा दी है
आपने
अब उनसे छुटकारा पाने के उपाय जानने के लिए
करनी ही होगी मजबूरन हमें आपके अगले उपन्यास की
व्यग्र प्रतीक्षा।
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