आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Monday, June 30, 2014

हौंसला (2014)

जैसे ही मैंने पंख फैलाना सीखा
मन में हौंसला जगा
उड़कर आकाश के उस पार तक जाने का

मुझे पता नहीं था कि
हवाओं के साथ दुरभिसंधि कर
वहाँ भी बिछा रखा होगा एक जाल
किसी शिकारी बहेलिए ने

मैं हवाओं के उस पार तक न जा सका
और शिकारी के जाल में फँसकर लाचार हो गया।

मैं हवाओं की दगाबाज़ी से नाराज़ था
मैं शिकारी के जाल में फँस जाने से आहत था
मैं उसे काटकर बाहर निकलने को उद्यत था

मैंने अभी - अभी पंख फैलाना सीखा था,

मैं जी भरकर खुले आकाश में उड़ना चाह रहा था।

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