आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Monday, June 2, 2014

प्रेम की मादकता के विविध रंग (2009)

(1)

ताजी उड़ेली गई बियर में
जैसे सनसनाकर लपकते हैं बुलबुले
गिलास की सतह से मुहाने की ओर
और खो जाते हैं हवा में
अपने स्वाद का एक लघु अहसास भरते हुए,
वैसे ही तुम्हारी याद आने के हर एक क्षण में
उमड़ पड़ती हैं मेरे मन में
प्रेम की त्वरित तरंगें
उम्मीदों की सतह से
सनसनाकर ऊपर उठती हुई
और विलीन हो जाती हैं
निराशा के अरण्य में सत्वर
माया - मृग के पीछे भागते किसी तीर की तरह।

(2)

जी करता है
तुम्हारी आँखों में लरजते गरम आँसुओं को
आनन्द - नीर की अजस्र धार में बदलने कि लिए
नीचे टपकने से पहले ही थाम लूँ
अपनी अँगुलियों की कोमल पोरों पर
ठीक उसी तरह सलीके से
जैसे कि बर्फ की क्यूब्स थाम लेती हैं
गिलास में उड़ेली गई गरम शराब की धार को
उसमें सुकून देने वाली शीतलता घोल देने के लिए
ताकि उतर सके आसानी से वह
तृषित कंठ से नीचे
घूँट - दर - घूँट भरती हुई तुष्टि
जगाती हुई आह्लाद तन की पोर - पोर में।

(3)

रेड वाइन सिप करते समय
उससे भीगे तुम्हारे गुलाबी होंठ
कुछ वैसी ही गहरी लालिमा भरे हो जाते हैं
जैसे हो जाया करता है
तुम्हारे शरीर का कोई भी कोमल हिस्सा
लाल - कत्थई रक्ताभामय
एक गहरा चुम्बन लेने के बाद,
शायद इसीलिए मुझे काफी सुकून मिलता है
जब तनहाई में तुम्हारी याद आने पर
गिलास को लबालब भर कर
धीरे - धीरे रेड वाइन सिप करता हूँ,
तुम्हारे अनुपस्थित गुलाबी होंठों का
एक प्रगाढ़ चुम्बन लेने के अहसास के साथ।

(4)

प्रायः बिना कुछ पिए भी
तुम्हारे होठों को गुलाबी बना देने वाले
सम्मोहक मदिरा - पान की स्मृति में डूबकर
मेरा अंग - अंग रक्ताभ हो उठता है
मन ही मन इस बात से निरन्तर डरता हुआ कि
वंचित करने के लिए मुझे इस एकाकी रति - सुख से
कहीं तुम यह न घोषित कर दो कि
अब कभी नहीं लगाओगी तुम
रेड वाइन के जाम को अपने होठों से
और मना कर दो मुझे भी
तनहाइयों के दौर में अकेले में बैठकर
अपनी स्मृति का यह मादक मदिरा - पान करने से।

(5)

प्रेम की उन्मत्त नगरी में
कल्पनाओं के वातायन में बैठकर
रूप की उत्तेजक मदिरा का
छककर पान किया मैंने
बेसुध हो जाने के क्षणों तक,
मदहोशी में मान बैठा स्वयं को मैं
उस नगरी का सबसे पहला शहंशाह,
इस बात को पूरी तरह भूलकर कि
मेरे जैसे लौह - हृदय वाले
कितने ही आए होंगें मुझसे भी पहले
चुंबक की तरह अपनी तरफ खींचती
इस रूप की नगरी में
गगरी भर प्रेम - सुधा पीने
और वे भी बहके होंगे मेरी ही तरह
हर समय बखान करते हुए
प्रेम - युद्धों में प्राप्त
अपनी काल्पनिक विजयों का।

(6)

प्रेम की आसक्ति में डूबी इस नगरी में
मेरे हृदय का कठोर लोहा
रूप की मदिरा की तपिश में गरम होकर
एकदम तैयार बैठा है
कभी भी पिघल कर
मन की परिकल्पनाओं के अनुरूप
किसी भी नए आकार में ढलते हुए
प्रेम की किसी नई जंग का
धारदार हथियार बन जाने के लिए
है कहीं कोई इसे ढालने वाला क्या,
जो नियंत्रित कर दे मेरे इस पिघलाव को
शीतलता भरी एक ठोस शक्ल देकर?

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