चाहता हूँ मैं कि झुक जाऊँ थोड़ा - सा
जैसे झुक जाती हैं
फलों से लद जाने पर
आम के पेड़ों की डालें
ताकि खाने के इच्छुक लोग
पहुँच तो सकें उन तक।
चाहता हूँ मैं कि समय के साथ
प्रस्खलित हो जाय मेरा अहं थोड़ा - सा
जैसे बरसात में कभी - कभी
खिसक जाते हैं टूटकर पहाड़
ताकि छू तो सके कोई उनकी ऊँचाइयों को।
चाहता हूँ मैं कि द्रवित हो बह चलूँ थोड़ा - सा
जैसे बहती है नदी ग्लैशियर के पिघलने से
ताकि बुझा सके वह किसी थके - हारे की प्यास
और लोग कर सकें उसके सहारे नित्यप्रति सिंचन - स्नान।
चाहता हूँ मैं कि बरस पड़ूँ थोड़ा - सा कभी
जैसे बरसता है बादल अचानक आँधी के संग घुमड़कर
जेठ की चिलचिलाती धूप में
तपते हुओं को राहत देने
और फिर झूमकर उड़ता है सावन में आसमान पर
ताकि लहलहा सके सूखी धरती एवं
कर सकें सारे पोखर - तालाब
जरूरत भर का जल - संचय
अपने रीते उदर में।
चाहता हूँ मैं कि टपक जाऊँ कभी
स्वाती की बूँद - सा
किसी प्रतीक्षारत सीप के खुले मुँह में
और पलूँ उसके गर्भ में मोती बनकर
ताकि दे सकूँ थोड़ा - सा निखार
किसी की सूनी ग्रीवा को।
भले ही आसान नहीं लगता
यह सब मेरा चाहा हुआ पूरा होना
फिर भी मैं खुश हूँ कि कोशिश तो कर रहा हूँ
निरन्तर अपनी इन चाहतों को पूरा करने की।
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