अरे, हुआ क्या तुम्हें, फूलने
लगी आज बिफरी - सी!
चढ़ी चली आती हो वेगे, कुछ बिखरी - बिखरी - सी!
घिरी घटाओं से धरती पर जो कुछ झरकर आता
वह सब तेरे अन्तराल में दौड़ - दौड़ भर जाता!
तूने सोचा कभी कि कितनी सीमाएँ हैं तेरी?
तुझे उमड़कर उफनाने में लगती कितनी देरी?
शायद नहीं, तभी तो जल
की पूँजी भरती जाती,
वैभव, शक्ति,
तुम्हीं में केन्द्रित, मुक्त तुम्हारी छाती!
ज्यों - ज्यों तुम
बढ़ती जाती हो, तट विस्तृत होता है,
धरती का निसर्ग - सुख सारा धारा में खोता है।
प्रश्न - चिन्ह बन बह
जाती है तुममें निर्बल पीड़ा,
समझ न पाता, क्यों करती तुम, कालबली - सी क्रीड़ा।
तुम हो सकती अमृत - नीरा, पर पिशाचिनी बनकर
जाने क्यों भरती अपना उर, तुम उफनाकर घर - घर!
यदि मानव होती तो तुमको मैं पूँजीपति कहता
अभी मारती हो तुम जल से, तब धन का बल चलता।
प्यासी हो, तुम भी, मानव भी, तुम जल की, वह धन का,
दोनों तृप्त नहीं, अतिमय हो, कुटिल अंत जीवन का।
बँधी नहीं रह पाती तट में दूर - दूर जाती हो,
नाले, पोखर,
ताल, गाँव, घर - बार ढूँढ़ खाती हो!
कुछ न कभी हो पाता हमसे, तुम दुर्जेय प्रलय - सी !
घेर, दबोच, बैठ जाती हो,
हमको सर्प - वलय - सी!
अरे, तनिक भी दया अगर हो बाकी तेरे उर में!
छोड़ दानवी प्यास, बाँट ले अभिलाषा घर - घर में!
कर ले तू संतोष प्रवाहिनि, सीमाओं में बँध जा!
संयम बहुत बड़ी पूँजी है, सारे जग को समझा!
फिर न किसी का घर उजड़े या निर्बलता खिझलाए!
तेरी शुचि, उदार,
धाराएँ सबकी प्यास बुझाएँ!
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