आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Sunday, May 4, 2014

सुनो! (2009)

सुनो!
ध्यान लगाकर सुनो!

खुली खिड़की के बाहर
सन्नाटे में गूँजती
झींगुरों की झनझनाती आवाज सुनो!
इसी झनकार में छिपा है
सन्नाटों पर विजय पाने का अदम्य साहस,

रात की नीरवता में
एकांतता के सहचर तुम सुनो!
बाहर नारियल की नुकीली पत्तियों से छन - छन कर
अन्धकार में डूबी जमीन पर झरती
पानी की बूँदों की मधुर टपकन!
इसी टप - टप में छिपी है
शुष्कायमान सृष्टि की अवशेष जिजीविषा!

अश्रव्य कोलाहल में डूबे
शहर की आपाधापी से ऊबे
विजन में विक्षेपित मन तुम
सजग होकर सुनो
घर के भीतर के अंधेरे से लेकर
बाहर दरख़्तों के काले झुरमुटों तक सनसनाती
हवा की सांय - सांय!

मेरे मन, तुम

सन्नाटों की इन अदम्य आवाज़ों को

निरन्तर सुनते रहो उस वक़्त तक
जब तक तुम्हें यह विश्वास न हो जाय कि

इस सनसनाहट भरे अंधेरे के बावजूद
रंग - मंच के परदे के पीछे

तैयार हो चुके हैं वे दृश्य

जो रोशनी के साथ अवतरित होते ही
सामने बैठे दर्शकों तक जरूर पहुँचा देंगे

अँधेरों पर विजय पाने का तुम्हारा संदेश।

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