आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Saturday, May 3, 2014

नयनों की उमड़ - घुमड़ (1982)

दो नयनों की उमड़ - घुमड़ ने कह दी सारी बात।

कैसे इनमें प्यार समाया, कैसे आकर्षण भर आया!
कैसे कोमल पंखुड़ियों पर रंगों ने श्रृंगार रचाया!
उर में कैसे सौरभ उपजा, कैसे महकी डाली - डाली!
फिर कैसे यह सब कुछ खोकर बैठी गुमसुम खाली - खाली!

कैसे तड़प - तड़पकर जीता जीवन अब दिन - रात!
दो नयनों की उमड़ - घुमड़ ने कह दी सारी बात।।

कैसे पलकों ने पट खोले, कैसे इनमें ज्योति समाई!
कितने - कितने सुन्दर रूपों में किसकी छवि इनमें छाई!
कैसे राग हृदय में उपजा फिर कैसे उन्माद समाया!
फिर किस - किस अनहोनी ने आ मुझको पीड़ागार बनाया!

कैसे डूब गया है दु:ख में मेरा मधुर प्रभात!

दो नयनों की उमड़ - घुमड़ ने कह दी सारी बात।।

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