पार्क में रोजाना टहलाया जाने वाला वह कुत्ता
देखने में किसी विदेशी या संकर नस्ल का ही लगता है
उसके गले में हमेशा एक सुन्दर पट्टा होता है
पट्टे में फँसी चेन उसके मालिक के हाथों में होती है
मालिक अपने दूसरे हाथ में दबे डंडे से
पार्क में उसके पीछे लगे देशी कुत्तों के झुंड को लगातार न
डराते तो
पार्क के आगंतुकों के उच्छिष्टों पर ही जीने वाले ये देशी
कुत्ते
उसकी तराशे बालों वाली शैम्पू से नहलाई गई साफ - सुथरी देह
पर
अब तक कितनी ही खूनी खरोंचे बना चुके होते लपक कर
अपने हक़ की रोटी का एक हिस्सा
उससे छीन लेने की उतावली में
या फिर अपनी वंचना की पीड़ा के प्रतिकार के आवेश में।
वह श्वान - प्रेमी यूँ ही रोज सुबह पार्क में टहलने आता है
और अपने साथ उस खाए - पिए विदेशी नस्ल के कुत्ते को
नित्य दुलराते हुए टहलाता है
उसे देखते ही भौंककर
पीछे - पीछे दौड़ पड़ने वाले पार्क के देशी कुत्तों को
वह हिक़ारत से मुँह बिचकाकर हमेशा ही दूर भगाता है
कुत्ते फिर भी गुर्रा - गुर्राकर अपना आक्रोश व्यक्त करते
ही रहते हैं
क्या करें, देशी जो ठहरे!
पार्क के देशी कुत्तों को देखकर
मैं सोचता हूँ, -
'इन्हें तो गाँवों में ही
पलना चाहिए था
पता नहीं कहाँ से शहर में आ गए ये!
इस देश में तो किसी भी शहर का कोई भी श्वान - प्रेमी
कभी भी किसी देशी कुत्ते को नहीं पालता
और कभी भूले से गाँव से आकर शहर में बस गया कोई आदमी
पाल भी लेता है
तो वह शर्म के मारे
ऐसे किसी कुत्ते के गले में सुन्दर पट्टा डालकर
उसे रोज़ाना पार्क में टहलाने नहीं ले जाता।'
मेरी चिन्ता यहीं नहीं रुकती
क्योंकि मुझे अभी तो यही ग़नीमत लगती है कि
विदेशी नस्लों के प्रेमी इन शहरियों के पीछे
इनके उच्छिष्टों के सहारे जीने को मजबूर
झुग्गियों में रहने वाले देशी इन्सानों का कोई झुंड
हमलावर नहीं हुआ है,
लेकिन यदि किसी दिन ऐसा हो गया तो फिर
इन्हें उनसे बचाने के लिए कौन फटकाएगा अपना डंडा?
वैसे पेट पालने के लिए यहाँ अपनी ही नस्ल के लोगों पर
डंडे फटकाने वालों की भी कहीं कोई कमी है क्या?
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