आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Sunday, May 4, 2014

नैनीताल (2011)

पूरे पचीस साल बाद पहुँचे जब हम नैनीताल में इस बार
तो एक - - एक फिर से समा गई
नैनी झील की तरलता मेरी नस - नस में
उसे निर्निमेष ताकती मेरी प्यासी आँखों की डगर,
फिर से सिमट आए मेरी बाँहों में
देवदारु के तने झुरमुटों के कारण कुछ ज्यादा ही नुकीले लगते
उचकते से हरे - भरे पहाड़,
फिर से भर गया मेरे मन में
नास - रंध्रों की राह से घुस कर
पहाड़ी पुष्पों के पराग से पगे पवन का प्रेमोत्तेजक प्रमाद।

मैं पहले की तरह ही ठगा सा देखता रह गया
माल रोड के और अधिक रंगीन हो गए नज़ारों को,
किसी अदृश्य आकर्षण से बँधा खिंचता चला गया
हर उस जगह, जहाँ - जहाँ से जुड़ी थीं मेरी पुरानी स्मृतियाँ,
मल्लीताल की बाल मिठाई, ज़हूर भाई की दूकान,
पुराने सचिवालय का पार्क, एम.एल.. क्वार्टर्स,
ब्रुकहिल कॉलोनी, .टी.आई., सूखाताल,
और फिर से मन किया कि लपक कर चढ़ जाऊँ
आसन्न बुढ़ापे की बढ़ती अशक्तता को ललकारती चाइना पीक पर
जी भर कर निहारने के लिए नंदा देवी की बर्फीली चोटियों को,
वहाँ से बस पक्षियों के आकार भर की दिखती हैं
नैनी झील में तैरती तमाम नावें,
और झील तो बस ऐसी दिखती है, जैसे
पहाड़ों का त्रिकोणीय हृदय अवस्थित हो
उनके वक्ष - स्थल के बीचो - बीच
खुलेआम मचल - मचल कर धड़कता हुआ
और हमारी भी धड़कनों को अनवरत बढ़ाता हुआ।

पर ऐसा भी नहीं है कि
कुछ भी बदला हो नैनीताल में इन पचीस वर्षों में,
बहुत से देवदारु - गुल्मों की जगह ले ली है अब कंक्रीट के भवनों ने,
बहुत सी खरोंचें बनाई हैं
यहाँ बसे कामातुर वहशियों ने
इस हिमगिरि-सुंदरी के नाभि - स्थल पर,
इन बलात्कारियों के स्खलित वीर्य के कचरे से
पटा जा रहा है दिन पर दिन इसका झील रूपी गर्भाशय,
गज़ब का व्यापार बढ़ा है यहाँ
इस रूपसी की कांचन - कटि को गिरवी रखकर,
शरीर की किञ्चित उभरी नाज़ुक रुधिर - नलिकाओं रूपी सड़कों पर
रात - दिन चढ़ती - उतरती हज़ारों गाड़ियों की रक्त - चाप - वर्धक धमधमाहट
व्यथित करती है इसे अनवरत
बदन पर रेंगती काम - पिपासुओं की अँगुलियों के नाखूनों की चुभन की तरह,
यह सब कुछ देख कर
कुछ समय के लिए मुझे ऐसा भी एक अहसास हुआ कि जैसे
पचीस साल बाद अचानक मैं भी शामिल हो गया हूँ आकर
सामूहिक बलात्कार के बाद उन्मत्त हो
पीड़िता के भग - तटों पर ही नृत्योल्लास करती
काम - पिपासुओं की किसी भीड़ में।

इस सारे बदलाव के बीच
वे भी मिले पचीस साल बाद नैनीताल में
जिनके बिना नहीं कटता था एक भी दिन चैन से इस शहर में,
मेरे लखनऊ के हॉस्टेल के दिनों का प्यारा साथी नरेश पंत
जिसने जमा ली है अब अपनी वकालत
यहाँ के नवगठित उच्च न्यायालय में
और जिसके दो खूबसूरत और होशियार बच्चों ने
खोज कर मुझे फेसबुक पर
वर्षों बाद फिर से जोड़ दिया है हमें आपस में पिछले साल,
थिएटर को समर्पित ज़हूर भाई तो व्यस्त थे कहीं पहले की तरह ही
और मिलना ही हो सका उनसे वहाँ के दो दिनों के प्रवास में,
निर्मल पांडे और विनोद तिवारी तो खैर अब स्मृतियों में ही जीवित हैं
उनकी मधुर मुलाकातों को बस मन ही मन नमन किया मैंने।

मेरे अभिन्न मित्र गंभीर सिंह पालनी का चेहरा
इस बार भी लगा मुझे उतना ही सरल, किन्तु गंभीर
जितना हुआ करता था वह
उनके जीवन - संग्राम में घिर कर समय - समय पर घायल हो जाने के पहले,
जाने कौन से पिटारे से खोजकर एकाएक पेश कर दी उन्होंने हमारे सामने
पचीस साल पहले हमारे परिवार के साथ स्टूडियो में खिंचवाई गई
अपनी एक श्वेत - श्याम तस्वीर
जिसे देख कर स्मृति के आनन्दाश्रुओं से डबडबा उठीं
हम दोनों की आँखें एक साथ
फिर जी भर कर फोटो तस्वीरें हमने
उनके घर की छत पर चढ़ कर
झील को अलग - अलग कोणों से अपनी पीठ पर टांग - टांग कर
और परिवार के हर एक सदस्य को फ्रेम के भीतर समेट - समेट कर
ताकि सनद रहे कि हम फिर से मिले थे
इस शहर की रंगीनियों के बीच इतने साल बाद
और इन्तज़ार कर सकें हम उस दिन का
जब कभी फिर से मिलेंगे हम इस खूबसूरत शहर में
खंगालते हुए इन चित्रों को अपने कंप्यूटर की फाइलों में
भले ही वह दिन आए फिर इसी तरह कई वर्ष गुजर जाने के बाद।

मैंने जल्दी ही दोबारा आने का वादा किया मित्रों से
क्योंकि मुझे यह भी अहसास हो रहा था कि

यदि इस बार की ही तरह
फिर से यहाँ आने के लिए किया हमने
नैनीताल से विलग होने की स्वर्ण जयन्ती के आने का इन्तज़ार,
तो शायद तब तक तो हम ही जीवित रहेंगे इस दुनिया में
फिर से देखने को इस खूबसूरत झील वाले शहर को
और  ही तब तक यह झील ही बची रहेगी इस दुनिया में
यहाँ आकर बस गए भोगातुर कुकर्मियों की कृपा से।

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