आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Saturday, May 3, 2014

आज की रामायण (2004)

किसी राजनीतिक दल की लंका
कोई भी 'विभीषण'
'रावण' की लात खाकर भी
नहीं छोड़ पाता है,
क्योंकि विरोधियों में उसे कहीं भी
'राम' नज़र नहीं आता है।
            
शांति - काल में तो
राम और रावण का भेद भी पता नहीं चलता,
युद्ध - काल नजदीक आते ही रिश्ते बदलते हैं
वानर - भालु इस दल से उस दल में उछलते - कूदते हैं
कभी रावण को राम बताकर
कभी राम को रावण
'विभीषण' भले ही लंका छोड़ें
किन्तु 'मेघनाद' प्राय: पाले बदलते हैं।
               
हर तरफ रथों की होड़ है
अयोध्या में अपना स्थान खोजते विरथ रघुवीर
सीता को पहचानना तो दूर
अपने ही दल को पहचाहने में असहाय हैं।

सीता की चिंता भी
रघुवीर को अपनी पहचान की पुष्टि देने की नहीं है
असली चिन्ता तो रघुनाथ की पहचान की है।

कौन देगा सीता को राम की पहचान की पुष्टि?
हनुमान तो राजनीति की सुरसा के मुँह से
बाहर ही नहीं पा रहे।

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