समुद्र की लहरों जैसा ही कुछ आकर्षक
अनवरत घटित हो रहा था उस दिन
तट के किनारे बनाए गए स्टेज के उस कैनवास पर
जब जाकिर हुसैन के तबले की दिल पर धमकती थाप
अपनी पूरी गति और लय के साथ घुल - मिल रही थी समुद्री लहरों
की गूँज में
सुल्तान खान की सारंगी की मन - मोहिनी धुन भी,
उस संगीत - त्रयी के साथ जुगलबंदी कर रहे थे
हाथ की लम्बी कूँची को विविध रंगों में डुबो - डुबोकर
स्टेज पर सजाए गए कैनवास पर अनेक अद्भुत आकार उकेरते
सफेद दाढ़ी - बालों वाले मक़बूल फिदा हुसैन
हज़ारों की निःशब्द भीड़ देख रही थी इस जुगलबंदी को
मंत्र - मुग्ध सी कालीकट के समुद्र - तट की रेती पर
संगीत और रंगों के सम्मोहक आरोहों - अवरोहों में डूबी,
हहराता अरब सागर जोश भर रहा था लगातार
मंचस्थ कलाकारों व दर्शकों के मन में
सहसा आसमान में भी उछलकर छा गए थे
एम.एफ. की कूँची से छलकते ढेरों रंग
जब उस विशाल जनावली की जोरदार करतल - ध्वनि के बीच
कुबूल किया था उन्होंने लोगों द्वारा भेंट किया गया
स्थानीय कला का प्रतीक एक प्रेमोपहार।
एम.एफ.! तुम हाथ में एक खूबसूरत - सा बेंत दबाए,
उस दिन भी तो चले आए थे बिना किसी ना - नुकुर के
शहर के उस व्यस्त चौराहे पर जुटी हजारों की भीड़ में,
बच्चे, बूढ़े,
नौजवान लोगों के नवसिखुए हाथों में दबी
हज़ारों कूँचियों के साथ मिलकर
उस दिन तुम्हारी अनुभवी कूँची ने
कितनी खूबसूरत जुगलबंदी की थी
सड़क के किनारे - किनारे तानकर लगाए गए
दर्ज़नों मीटर लंबे कैनवास पर
और उस पर बिखेरे गए अपने समेकित रंगों से
रच दिया था सभी ने मिलकर भावनाओं का एक अभिनव हिन्दुस्तान,
उस दिन सचमुच कला को आम आदमी के पास तक ले आए थे तुम
या कह लें आम आदमी को कला तक खींच लाए थे तुम,
एम.एफ.! तुम्हारे रंगों का यह संसार
वक्त के साथ धीरे - धीरे खास से आम होता चला गया
और तुम्हारी शख़्सियत धीरे - धीरे आम से खास।
एम.एफ.! तुम आजीवन धरती के इस छोर से उस छोर
कुछ अलग ही किस्म के रंग बिखेरते रहे
हमेशा कुदरती पैटर्न से थोड़ा सा अलग हटकर,
मन की गहराइयों में छिपी अमूर्त्त भावनाओं के जल में
एक अजीब से आवेश को घोलकर तैयार किए हों जैसे तुमने ये रंग
स्ट्रोक - दर - स्ट्रोक, कहीं शोला, कहीं शबनम बनकर उभरते रहे हैं ये,
अरे चितेरे! तेरी तूलिका ने यह कैसा कमाल कर दिया कि
इस पूरी धरती की रंगत ही बदल दी उसने,
प्रायः बड़े से बड़ा कैनवास भी छोटा ही पड़ जाता था
तुम्हारी लंबी कूँची की पहुँच के आगे
इसीलिए शायद तुम कभी - कभी धरती को ही कैनवास बना लेते थे अपना
तुम्हारे हमेशा नंगे पैर ही चलने का राज़ भी
कुछ - कुछ इसी में छिपा था शायद
क्योंकि कैनवास बन चुकी धरती पर
भला पैरों में जूतियाँ डालकर कैसे चल सकते थे तुम।
लेकिन मेरे प्रिय भावना - संपन्न चित्रकार!
इसमें भी कोई दो राय नहीं कि
कहीं - कहीं तुम बहके और बहे भी थे जीवन में जमकर
अपनी कलात्मक भावना के अतिरेक में
और बुरी तरह टकरा गए थे लोगों की धार्मिक भावना के साथ
लोगों को लाख समझाया गया कि
जब खजुराहो के मंदिरों की कामासनों को दर्शाती भित्ति - मूर्तियों
या
कालिदास के ‘कुमारसंभवम’
में वर्णित कामोत्तेजक देवि - सौन्दर्य में
कुछ भी आपत्तिजनक नहीं दिखता उनको तो
तुम्हारे जैसे आधुनिक कलाकार द्वारा चित्रांकित इस नग्नता को
भी
क्यों नहीं नजरंदाज़ कर सकते वे,
लेकिन यहीं पर शायद कला और भावना का अन्तर्द्वन्द्व उभरकर
अड़ गया था आकर लोगों के सामने रास्ते में
और उन्होंने बाध्य कर दिया था
चारों तरफ बिखरे माधुर्य पर फिदा अपने इस प्रिय चित्रकार को
देश से बाहर ही निर्वासित रहकर अपना बुढ़ापा बिताने के लिए।
चलो, अच्छा हुआ कि निर्वासित होकर जीने के लिए
मजबूर कर दिए जाने के कारण
तुमने मृत्यु से पहले ही लौटा दी इस जन्म - देश की नागरिकता
और परदेश में बसकर स्वतः ही मुक्त हो गए
इस देश के कला - प्रेमियों के स्नेह के ॠणी बने रहने की मरणांतर
पीड़ा से,
लेकिन इतना तो तय ही है कि
तुम्हारे अनूठे रंगों से वंचित हो चुके
इस देश की धरती के कैनवास पर
एक लंबे समय तक रह - रहकर उभरता ही रहेगा
तुम्हारे जैसे किसी चितेरे की कूँची के स्पर्श को तरसता,
किसी न किसी गजगामिनी का वेदना में डूबा कोई अक्स,
या फिर तुम्हारी कला की श्रेष्ठता की मिसाल बनकर दमकता
अल्लाह के नूर की नियामत पाने का इंतज़ार करती किसी मीनाक्षी
का चेहरा।
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