आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Saturday, May 3, 2014

ख़तरे की घंटी (2006)

मित्रो!
अफ़सरानो!
पुलिस कप्तानो!
कलक्टर साहबानो!
देश के आला हुक़्मरानो!
जनता के नुमाइन्दो!
न्याय के रखवालो!
चौथे स्तम्भ वालो!
खोलो अब अपनी सोच के बन्द किवाड़!
जरूरी हो गया है आज कि मिटाकर प्रबल तंद्रा को
किया जाय अब अपनी चेतना का विस्तार!

ज़िन्दगी से हैरान - परेशान चूहों की सभा में
भले ही यह फैसला न हो पाया हो अभी कि
कौन बाँधेगा बिल्ली के गले में घंटी
लेकिन फिर भी मेरा मानना है कि
ख़तरे की घंटी तो बज ही चुकी है
खास तौर पर यह ख़बर पढ़कर कि
एक एम.बी.. पास ने
दो साधारण फ़ौज़ी जवानों के साथ मिलकर
क्रांति का आगाज़ करने के इरादे से
भगत सिंह के महत्कर्म को मिसाल बनाकर
नोयडा में लूट ली स्टेट बैंक की एक शाखा

भले ही बचकाना हो उनकी हरक़त
जघन्य अपराध हो उनका ऐसा करना
सजा भी मिले शायद उनको इसकी
और कोई भी
एक बूँद आँसू तक न बहाए उनकी बदहाली पर
लेकिन, मित्रो!
ख़तरे की घंटी तो बज ही चुकी है न!
भले ही इकट्ठे होकर
चूहे न ले पाए हों कोई फैसला अभी तक!

बेहतर होगा मित्रो!
अब तुम अपने आप ही
बजाना शुरू कर दो ख़तरे की घंटिया
ऊपरी तौर पर तो
व्यवस्था भी स्वागत कर ही रही है

सीटी बजाने वालों का!

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