आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Sunday, May 4, 2014

मौन (2009)

कौन सा संकोच या स्वार्थ
भय अथवा भ्रम
रखता है मौन हमें
अपनी ही आँखों के सामने
सब कुछ लुटता हुआ देखकर भी!

ऐसा क्या है जो
जमा देता है बर्फ - सा
हमारे खौलते हुए खून को!

कैसी है यह दुर्नियति
जो मजबूर कर देती है हमें
किसी अंधे की तरह
बंद रखने को अपनी आँखें
उनके सामने ही
सारी अनैतिकता का
नंगा नाच होते हुए भी!

कहाँ से उपज रही है यह जड़ता!
कहाँ से आकर फैल गया है
चारों ओर यह अंधकार!

क्यों उल्का-पिंड सा जल कर
विलीन होता जा रहा हूँ मैं
आसमान के किसी अदृश्य कोने में
धरती पर सशरीर टकराए बिना?
कुछ बित्ता ही सही,


उसके सीने में धंस कर
अपने अस्तित्व का तनिक भी अहसास कराए बिना?

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