साइबरस्पेस में विचरण करते हुए
कृष्ण ने राधा से कहा -
"यदि द्वापर
में हमारे पास
एस. एम. एस. की सुविधा होती
तो बाल - सखा उद्धव के हाथों न भेजने पड़ते संदेशे तुम्हें
और बेचारे मधुबन को भी न सुनानी पड़ती जली - कटी
ऐसे में मुझे दो ही बातें जानने की प्रतीक्षा रहती
कि तब सूरदास का विरह - वर्णन कैसे सजीव बनता
और 'होली' तथा 'वसंतोत्सव' जैसे प्रेम - दिवसों पर
हमारे एस. एम. एस. संदेशों का कैसा उपयोग होता?
ऐसे में एक बात तो तय होती कि
आधुनिक प्रेम - दिवस के विकल्प के रूप में
हमें इस देश में
‘वैलेंटाइन डे’ मनाने की कोई आवश्यकता न होती।"
राधा ने मन ही मन विचारा -
भारतीय प्रेम की परंपरा में
भावों के आदान - प्रदान के आगे
भले ही लेन - देन का कोई स्थान न रहा हो
पर 'वैलेन्टाइन डे' का संवाद तो
बिना किसी प्रेमोपहार के पूरा हो ही नहीं सकता,
कहीं आधुनिकता का पर्याय व्यावसायिकता ही तो नहीं है?
साइबरस्पेस में प्रेमियों के कॉर्नर के पास पहुँचकर
कृष्ण की ओर निहारते हुए राधा बोलीं -
"यदि द्वापर
में ऐसा होता
तो हम कालिंदी - कुंज में रास के बजाय
इंटरनेट पर चैटिंग किया करते,
लेकिन तब तुम्हारी मुरली का क्या होता?
मैं उसे चुराकर तुम्हें छकाती भी कैसे?
वासंती वन - मालाएँ किसे पहनाते हम?
हमारे होली के रंगों का क्या होता?"
"मैं तो यही कहूँगी, कान्हा!
कि इन कृत्रिमताओं का मजा उन्हें ही लेने दो
जो धरती पर नहीं, साइबरस्पेस में बसते हैं,
आओ! हम - तुम लौट चलें वहीं यमुना के तीर
होली के रास रचाने!
गोकुल, वृन्दावन, बरसाने!
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