आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Sunday, May 4, 2014

अर्थशून्य (2009)

लटकी हुई हैं उम्मीदें
झूठे आश्वासनों की
सड़ियल - सी अरगनी पर
गीले कपड़ों - सी सूखती हुई,
डर है
किसी भी क्षण
अरगनी के टूट कर गिर जाने का
और कपड़ों के गन्दगी में फिर से लिथड़ जाने का।

शहर की सड़कों के किनारे
लैम्प - पोस्टों व टेलीफोन के खंभों पर झूलते
फटे - पुराने पोस्टरों की तरह
अर्थशून्य - से लटक रहे हैं
कंधों पर लाद लिए गए
सिद्धान्तों और मान्यताओं के झोले
यत्न बनते जा रहे सब
यातनाओं का सबब अब।

 

सपनों के रखवाले अब
कुछ भी तो न बोलें!
पहरेदार जाने कब अब
फिर अपनी आँखें खोलें?

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