आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Sunday, May 4, 2014

कचरा (कॉलोनी के कचरा बीनने वाले लड़के को समर्पित कविता) (2011)

बड़े जतन से खंगालता है वह
मुहल्ले के नुक्कड़ पर रखे कूड़ेदान को,
कूड़े की एक - एक थैली को खोल - खोलकर छाँटता है वह
खाकर फेंकी गई खाने की पैकिंगों में से
प्लास्टिक के डिब्बे, टूटे - फूटे खिलौने व इलेक्ट्रॉनिक के सामान,
भरता जाता है उन्हें वह लगातार
अपनी साइकिल के कैरियर पर बँधे एक बड़े से बोरे में,
उन डिब्बों से उठती सड़ियल सी बदबू से नहीं घिनाता वह जरा - सा भी,
एक लंबे समय से यही बदबू ही तो सहारा बनी हुई है उसके जीविकोपार्जन का।

रोज़ सवेरे ही आ डटता है वह
उस कूड़ेदान के पास वाले पेड़ के नीचे,
अगल-बगल के घरों से जैसे - जैसे निकलकर आती हैं कचरे की थैलियाँ
वैसे - वैसे ही सक्रिय होता रहता है वह बार-बार,
नहीं तो ऊँघता रहता है वह उस पेड़ के तने से टिककर उदास - सा,
कूड़ेदान तक पहुँचने वाले हर शख़्स को बड़ी हसरत से देखता है वह,
बड़े लोगों के घरों का कूड़ा लाने वाली नौकरानियों से
दुआ - सलाम भी कर लेता है वह कभी - कभी,
लेकिन सामान्यतः गृहिणियों व बहू - बेटियों के स्वयं उधर आने पर
वह दूर से ही ताकता रहता है चुपचाप उन्हें
पानी की धार में ऊपर चढ़ती मछली को निर्निमेष ताकते किसी बगुले की तरह
और उनके वहाँ से चले जाते ही लपक लेता है वह उस कूड़ेदान की ओर
उनकी लाई हुई कचरे की एक - एक थैली को खंगालने के लिए।

उसे नहीं पता कि क्यों समा गई है उसकी ज़िन्दगी इन कूड़ेदानों में,
उसने जबसे होश सँभाला है तब से यही कचरा ही उसकी रोटी का सहारा है,
क्षय की रोगी माँ की दवाओं से लेकर अपाहिज़ बाप की दारू की बोतल तक
सभी कुछ निर्भर है मुहल्ले के कूड़ेदानों से बीने गए इसी कचरे पर ही,
वह शुक्रगुज़ार है ऐसे इस वक़्त का
जहाँ चारों तरफ नित्य ही पैदा होता है ऐसा ढेर सारा कचरा
जिसे मुफ़्त में एकत्र कर बेचा जा सकता है
बाज़ार में दोबारा इस्तेमाल के लिए,
वह यही मनाता है ईश्वर से कि कभी ऐसा दिन न आए
जब बाज़ार शहर से कचरा बीनने की भी कीमत तय कर दे
और वह अपनी कचरानुमा ज़िन्दगी की अनिवार्यता बने इस कचरे को
साइकिल पर टंगे अपने बदबूदार बोरे में भरकर

अपनी क़िस्मत के उन सौदागरों तक ले जाने को भी तरस जाए।

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