आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Sunday, May 4, 2014

रण - भूमि (2011)

इतना ज्यादा शोर कभी नहीं था नेपथ्य में,
इतने मूक कभी नहीं थे लोग
घावों पर नमक छिड़के जाने के बावज़ूद,
इतनी गहरी कभी नहीं थीं चालें अपने ही नुमाइन्दों की,
इतने मुश्किल और निरर्थक कभी नहीं थे आपस के संवाद,
जबकि हक़ीकत यही है कि पहले कभी नहीं उपलब्ध हुए
एक - दूसरे को समझने - समझाने के इतने सारे माध्यम यहाँ।

कितनी बार सोचा था मैंने कि
इस बार नहीं फिसलने दूँगा मुट्ठी से
पिछड़े जाड़े में समेटी गई सूरज की गरमी,
कितनी बार तय किया था मैंने कि
अब फिर से नहीं होने दूँगा अपने खेत की लहलहाती फसलों को
किसी सूदखोर महाजन के नाम गिरवी,
कितनी बार लगा था मुझे कि अब तो निश्चित ही
अपनी शब्द - ज्वाला से दहन कर दूँगा मैं
अन्याय और आतंक की दिनो - दिन समृद्ध होती लंका को,
किन्तु कुछ ऐसा ही हो जाता है हर बार यहाँ कि
जैसा चाहता हूँ वैसा कुछ भी नहीं हो पाता,
और ऐसा मेरे साथ ही नहीं
तुम्हारे साथ भी तो ऐसा ही होता है
मेरे समचिन्तक मित्रो!

प्रायः हम अकेले ही भिड़ जाते हैं
युद्ध के मोर्चे पर बहादुरी के साथ
और अभिमन्यु की तरह हमेशा ही वीर - गति को प्राप्त होते हैं
विपक्षियों के सम्मिलित रूप से रचे गए चक्रव्यूह में।

कुछ भी हो मित्रो!
इस तरह की हार के सिलसिलों का भी

अपना ही एक ऐतिहासिक योगदान होता है,
इस तरह की शहादत से उद्वेलित होकर ही तो
नए संकल्पों के साथ उतरते हैं रण - भूमि में बार - बार
अपने - अपने समय की महाभारत के वीर अर्जुन।

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