आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Sunday, May 4, 2014

लुकाठी (2011)

आज मेरे हाथ में एक लुकाठी है
याद नहीं कब इसे पकड़ा मैंने
खुद पकड़ा या
किसी और ने पकड़ाई
लेकिन दोस्तो,
आज मेरे हाथ में
एक जलती हुई लुकाठी है
और मेरा मन कर रहा है कि
इसके सहारे जला - जला कर ख़ाक कर दूँ मैं
छल, फ़रेब और आडंबर के सारे बाज़ारू प्रतिष्ठानों को।
                   
मेरे भीतर से सुलगी यह आग
खुद का घर जला कर ही
बाहर की ओर फैली है
और इस दृष्टि से यह लुकाठी
बाज़ार में खड़े कबीर की लुकाठी जैसी ही लगती है।

शायद कबीर की तरह ही कल
मैं भी अस्वीकार्य हो जाऊँ इस दुनिया में
और शामिल कर दिया जाऊँ
घर - फूँक तमाशा देखने वालों की सूची में
या कबीर की तरह ही हँसी का पात्र बना कर
दरकिनार कर दिया जाऊँ समाज में गालियाँ दे - देकर।

लेकिन दोस्तो,
फिलहाल तो मेरे हाथ में
एक जलती हुई लुकाठी है
और मेरे सामने है
बेशर्मी भरे अट्टहास में डूबी
जलाकर ख़ाक कर दिए जाने लायक
अपने सुख - चैन की सीता के अपहर्ता रावण की

लगातार मुँह चिढ़ाती मायावी दुनिया।

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