आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Sunday, May 4, 2014

गधा कभी रोता नहीं (2012)

गधा कभी जीवन में वैसे तो रोता नहीं,
लेकिन कभी - कभी गधे का भी रोना होता है।

गधा बेचारा बड़े - बड़े बोझे सदा ढोता है,
थका - हारा धूप में ही खड़े - खड़े सोता है,
खाली पीठ होने पर भी गधा कभी हँसता नहीं  
सोच - सोच आगे की ही चिन्ता में खोता है,
कुछ भी उपाय करे किन्तु फिर भी आखिर में
गधा तो गधा ही है यही सिद्ध होता है।

लात पड़े, डांट पड़े, संयम नहीं खोता है,
पूंछ ऐंठ डंडे लगें, क्षुब्ध नहीं होता है,
गिनी पिग - सा सहे सदा यातना प्रयोगों की
स्वामी के आगे - पीछे साथ सदा रहता है,
लादी संग लाद लेता आलसी मनुष्य को भी,
झाड़कर दुलत्ती कभी क्रुद्ध नहीं होता है।

गधों को इस दुनिया में कभी कोई ढोता नहीं,
गधों का तो कहीं कोई यूनियन भी होता नहीं,
पुश्तैनी नैराश्य भरा गधों के कोमल मन में,
छोटा सा भी क्रांति - बीज कभी कोई बोता नहीं
कान उमेंठे जाने पर भी करता बस ढेंचूँ - ढेचूँ
गधा कुछ भी पाता नहीं, खोता ही खोता है।

गधा कभी जीवन में वैसे तो रोता नहीं,

लेकिन कभी - कभी गधे का भी रोना होता है।

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