आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Sunday, May 4, 2014

वे मरे नहीं थे (2008)

वे लगातार रोते हुए से दिख रहे थे
पर वे रो नहीं रहे थे शायद,
दरअसल वे हँसते ही ऐसे थे कि
लगता था जैसे रो रहे हों।

वे जाहिल और गंवार जैसे लग रहे थे
पर वे जाहिल और गंवार नहीं थे,
दर असल नासमझी में लोगों को उनके तौर - तरीके
लगते ही थे जाहिलों और गंवारों जैसे।

वे मरे हुए जरूर लग रहे थे
पर वास्तव में वे मरे नहीं थे अभी तक,
दरअसल वे जी ही रहे थे मरे हुओं के जैसे।

वे ज़मीन से उखड़े हुए दरख़्त की भाँति सूख रहे थे
पर उनकी जड़ें अभी
पूरी तरह ज़मीन से अलग नहीं हुई थीं,
दरअसल,
तमाम बुनियादी लाचारियों के बावजूद
उनके भीतर अभी भी
अपना अस्तित्व बचाए रखने की उत्कंठा बरकरार थी
और इसीलिए वे चुपचाप
आखिरी संघर्ष की तैयारी करने के लिए

किसी भी वक़्त तनकर खड़े ही होने वाले थे।

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