रोओ, इस देश की
दुर्गाओ, चण्डियो, महाकालियो!
रोओ, क्योंकि रोना ही बचा है नियति में
तुम्हारी और
हमारी भी।
रोओ, क्योंकि भूखा है देश यह
सिर्फ पेट का
ही नहीं
हर तरह की
निर्लज्जता दिखाने का भी।
रोओ कि विश्व
के बलात्कारियों की राजधानी बन चुकी है दिल्ली,
रोओ कि घर से
लेकर भरी सड़कों तक कहीं भी महफूज़ नहीं हो तुम,
रोओ कि बड़े
शहर ही नहीं, छोटे कस्बों और गाँवों तक का यही है हाल,
रोओ कि नग्नता
निषिद्ध होते हुए भी
इस देश के पर्यटन
- स्थलों में
आए दिन होते
हैं बलात्कार विदेशी युवतियों तक पर।
रोओ, क्योंकि हमारे आक्रोश से डरकर
शर्म से
आत्महत्या तो नहीं कर लेंगे ये बलात्कारी
और गुस्से में
इन विक्षिप्तों को संगसार करने का
मौका तो नहीं
ही मिलेगा आपको गाँधी के इस देश में!
रोओ कि यहाँ
गुस्सा सड़कों पर नहीं
सिर्फ टीवी
चैनलों पर फूटता है,
रोओ कि यहाँ
सिर्फ बेनतीज़ा बहसें ही होती हैं
पान के
नुक्कड़ों से लेकर संसद के भीतर तक,
रोओ कि यहाँ
सुरक्षित नहीं है कोई
चुस्त पुलिस
वालों के बीच भी,
रोओ कि यहाँ
तमाम अधिनियम होते हुए भी
सजा देने में
सुस्त है कानून।
रोओ कि यहाँ
यह सब आए दिन होते हुए भी
हम झूठ - मूठ
गर्वान्वित होते ही रहेंगे
अपनी
सांस्कृतिक विरासत पर
रोओ कि यहाँ
सब कुछ भुला ही दिया जाता है दो - चार दिन में
अनेकानेक
सामाजिक - राजनीतिक समस्याओं के बीच।
रोओ, क्योंकि करुणा से भरा है इस देश का इतिहास,
रोओ, क्योंकि वैसे भी हँसा तो जा नहीं सकता
अपने ही घरों
में आग लगाकर भी।
रोओ, इस देश की माताओ, बहनो, बेटियो, रोओ!
लेकिन एक बार
घरों से बाहर निकलकर
जरा कुछ जोर
से तो रोओ!
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