आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Sunday, May 4, 2014

महानाश के कगार पर (सुनामी पीड़ितों को समर्पित कविता) (2011)

आज अचानक, आह!
तीव्र प्रवाह की नोक पर टाँगकर
बहा ले गईं मुझे ऊँची लहरें
सभी कुछ तहस - नहस कर निगलती हुई,
अति करुण चीत्कार मेरी दबी उनकी गर्जना में
ला मुझे असहाय पटका वेग से
नगर के इस एक ऊँचे टीकरे पर।

कितनी भयानक, कितनी उजाड़,
कितनी वीरान हो गई
मेरे आस - पास की दुनिया
बस चंद ही मिनटों में,
मैं तीन बरस का लुटा - पिटा अनाथ बालक,
खो चुका हूँ
अभी - अभी आई सुनामी में
अपने भरे - पूरे बचपन की सारी निशानियाँ।

जहाँ रोज़ ठुमक - ठुमक कर चलता रहा मैं
उसी घर की दीवारें नींव सहित हिलती देखी मैंने,
जहाँ रोज उछल - उछल कर खूब खेला किया मैं
उसी मैदान की भूमि को फट कर
पृथ्वी में धँसते हुए देखा मैंने,
जिस छत की छाँव में आज तक
सुरक्षित महसूस करता रहा मैं
उसी को भरभरा कर टूटते - बिखरते देखा मैंने,
जिन माँ - बाप की अँगुलियों को थाम कर
अपने शहर के मनोरम रास्ते नापे थे
उन्हीं को भूकंप की विनाश - लीला में
निश्चेत हो विलुप्त हो जाते देखा मैंने,
समुद्र की जिन लहरों पर पिता की कमर थामे
साहस की पहली पींगें भरी थी मैंने
उन्हीं स्नेह - तरंगों के ज्वार को उफना कर
सृष्टि का तिल - तिल समेट कर बहा ले जाते देखा मैंने।

चिन्तातुर हूँ कि क्या होगा
अब मेरी इस धरती का भविष्य
जो झेल रही है भूकंप में क्षतिग्रस्त हुए
न्यूक्लियर रिएक्टर के रिसाव से उत्पन्न
विकिरण की भयावहता को?
बरबस याद आ जाती है मुझे
हिरोशिमा - नागासाकी और चेर्नोबिल की,
सारे विश्व की सलामी व दुवाओं के पात्र लगते हैं
इस ग्रैण्ड रेडिएशन बाथमें शामिल
वे ज़ांबाज जापानी विशेषज्ञ
जो हफ़्तों से जुटे हैं नियंत्रित करने में
इस आणविक ऊर्जा - संयंत्र से फैलने वाले रेडिएशन को
अपनी जान की जरा भी परवाह न करते हुए,
समस्त जीव - जगत के भविष्य को बचाने के प्रयास में।

क्या अपनी प्राणाहुति देकर भी
ये तकनीकी विशेषज्ञ
धो पाएँगे उस डान्घेटा माफिया के पाप,
जिसके हवाले करते रहे हैं अपना आणविक कूड़ा
दुनिया के तमाम विकसित देश
बेशर्मी से अपना चेहरा छिपा - छिपाकर
उसे सोमालिया की बंजर भूमि के गर्भ में दफ़ना देने के लिए
अथवा हिन्द महासागर के गर्भ में
जहाज सहित जल - मग्न कर देने के लिए?
इन घृणित कर्मों में संलग्न मानव - जाति का क्या भविष्य होगा?
इस विकिरण से विषाक्त धरती माँ की कोख से
अब किस तरह के मनुष्य जन्म लेंगे?
इस विकिरण से गरमाए उदधि के मंथन से अब कौन से रत्न निकलेंगे?
इस विश्व - व्यापी गरल से हमें बचाने अब कहाँ से आएँगे शिव?

बाल मन अवश्य है मेरा
किन्तु इस इलेक्ट्रानिक युग में
तकनीकी प्रगति वाले जापान जैसे देश में जन्मा हुआ बच्चा हूँ मैं,
खुलने लगी हैं अब धीरे - धीरे मेरे सामने
दुनिया के सारे मानव - समूहों की पोल - पट्टी,
समझने लगा हूँ मैं शनैः - शनै:
विश्व पर आसन्न सारे भयानक ख़तरों के बारे में।

प्रश्नाकुल हूँ कि क्या मैं
इस परम सुविधा - भोगी विश्व के
आधुनिक देवालयों के उच्छिष्ट सा फेंका गया
प्रगति के परिणामों का एक प्रतीक हूँ
या प्रलय - जल में से मथ कर हवा में उभरा
विषैली गैस का सत्वर फूट जाने वाला क्षणिक बुलबुला हूँ?

हम बढ़ाते ही जा रहे हैं
विषैली गैसों को वायुमंडल में हर दम
जीवाश्म - ईंधनों को जला - जला कर
इसके बावज़ूद भी हम रचते रहते हैं
विश्व के नाश की इस दुरभिसंधि में
शामिल न होने का स्वांग
बढ़ते हुए वैश्विक तापन व जलवायु - परिवर्तन के प्रति
अपनी चिन्ताएँ जोर - जोर से जता - जताकर!

देख रहा हूँ चारों तरफ मैं
सुनामी की लहरों में तहस - नहस हो गए
वाहनों, जलयानों, हवाई जहाजों आदि के मलबे के ढेरों को,
देख रहा हूँ मैं नदियों, तालाबों, झीलों की सतह पर तैरते
उनके छोटे - छोटे पुरजों, घरेलू सामानों आदि के कचरे को,
देख रहा हूँ मैं जल में आप्लावित धरती के सीने से लेकर
अपने पैर पीछे समेट चुके समुद्री जल की सतह तक पर
विध्वंश में बह कर बिखरे तेल की चमकती परत को,
सोच रहा हूँ कि कैसा होगा अब
इस जल पर निर्भर वनस्पतियों व जीव - जन्तुओं का भविष्य?

याद आ रही है मुझे
बरसों पहले छिड़े खाड़ी - युद्ध की विभीषिका में
कुवैत के तेल के कुंओं से हुए रिसाव की,
जिसमें करोड़ों बैरल तेल बहा था फारस की खाड़ी में
समुद्री वनस्पतियों, जीव - जन्तुओं व पक्षियों के जीवन का विनाश करता।

याद आ रही है मुझे
हाल ही में मैक्सिको की खाड़ी में
एक क्षतिग्रस्त कुएँ से हुए तेल के उस भयानक रिसाव की
जिसके कारण नित्य घुलता रहा है
हजारों बैरल तेल समुद्री जल में,
बरबाद कर चुका है यह तेल
अमेरिका में लूसियाना की नाजुक हरी - भरी धरती को और
आसन्न बना है फ्लोरिडा के समुद्री बीचों के लिए एक बड़ा ख़तरा।

खुला तेल जब पकड़ लेता है आग
तब वायुमंडल में उगलता है
सल्फर और नाइट्रोजन का एक विशाल गुब्बार
और हवा की ऑक्सीजन इस धुएँ से मिल कर बनाती है
टनों सल्फर डाइ ऑक्साइड और नाइट्रस ऑक्साइड आकाश में
इसी से धरती पर होती है फिर ज़हरीली अम्ल - वर्षा
जिसमें तड़प - तड़प कर मरते हैं पेड़ - पौधे और जल - जीव
इसी धुएँ की बेन्ज़ीन से लोगों में तेजी से पनपता है त्वचा का कैन्सर।

एक बड़ा अभिशाप सा ही लगता है
सुख - सुविधाओं के भोग के लिए
मनुष्यों द्वारा इतने सारे प्राकृतिक संसाधनों का
अनाप - शनाप उपयोग करना ,
खास कर तब, जब कि मालूम है हमें कि
इनके उपभोग की वर्तमान स्थिति में भी
अधिकतम पचास बरस तक ही चलेगा
धरती के गर्भ में छिपा जीवाश्म - तेलों का सारा भंडार,
लगभग डेढ़ सौ वर्षों तक ही टिकेगा
धरती के पेट में निक्षिप्त कोयले का ख़जाना,
लगभग इतने ही समय तक उपलब्ध हो सकेंगी हमें
धरती के फेफड़ों में समाई हुई प्राकृतिक गैसें,
शीघ्र ही ख़त्म हो जाएँगे धरती से
परमाणु ऊर्जा के लिए जरूरी खनिज अयस्क भी,
ऐसे में क्या करेगा मनुष्य
अपनी जिन्दगी की सुख - सुविधा को बरकरार रखने के लिए?

यह कैसी गुणवत्ता है मनुष्य - जीवन की
जिसमें समस्त जीव - जगत का संहार छिपा है
और जिसके टिकाऊ होने के बारे में भी
सामने खड़े हैं इतने सारे प्रश्न - चिन्ह?
कहीं इसीलिए तो नहीं
धरती को छोड़ कर चन्द्रमा के संसाधनों पर भी
डाका डालने की तैयारी में लग गए हैं
गुणवत्ता भरी जिन्दगी जीने की चाह रखने वाले देशों के कुछ होशियार अमीर?
बेचारे चन्द्रमा के मुँह पर अब और कितने दाग लगाएँगे हम लोग?

अकेला पड़ा यहाँ असहाय
तड़प रहा हूँ मैं प्रकृति के इस निर्मम प्रहार की पीड़ा से,
याद आ रही है मुझे
उन ट्यूना मछलियों की पीड़ा
जो नेस्तनाबूद हो गई हैं छटपटा कर भूमध्य सागर से,

याद आ रही है मुझे
अन्टार्कटिक के उन पेन्ग्विन पक्षियों की वेदना
जिनका वंश - नाश आसन्न है
जलवायु - परिवर्तनों के कारण।

याद आ रही है मुझे
उन व्याकुल गौरैयों की व्यथा
जो विषाक्त वातावरण के कारण गायब होती जा रही हैं
भारत के शहरों व खेत - खलिहानों से,

याद आ रही है मुझे
पवित्र मानी जाने वाली गंगा नदी में
गंदगी के आगार के बीच तड़पते जल - जीवों की,
जिसमें उड़ेल देते हैं हम
अपने देश का अधिकांश शहरी कूड़ा और
प्रतिदिन विसर्जित करते हैं करोड़ों गैलन कचरा
दरकिनार कर अपनी सारी आस्था व आध्यात्मिक चेतना,

याद आ रही है मुझे
चीन की उस विशाल पीली नदी में पड़ी मरणासन्न मछलियों की भी,
जिसके एक तिहाई हिस्से का जल
घोषित किया जा चुका है
पीने व औद्योगिक उपयोग के लिए अनुपयुक्त,

याद आ रही है मुझे
प्रति वर्ष करोड़ों पौंड कीटनाशक इस्तेमाल करने वाले अमेरिका की
उन अनेकों विषैली झीलों के मरणासन्न जल - जीवों की,
जहाँ मनाही है लोगों को तैरने, मछली पकड़ने व मत्स्य - पालन करने की।

स्मृति में और भी न जाने कितनी ही ऐसी
मानव - जनित वेदनाओं की अनुभूति
निरन्तर बुन रही है दुष्चिन्ताओं का जाल,
मैं इन्हीं दुष्चिन्ताओं के जाल में जकड़ा
उठ कर खड़ा भी नहीं हो पा रहा हूँ
सत्य की आँखों में आँखें डाल।

ज्यों - ज्यों घुलती जा रही है
फुकुशिमा परमाणु ऊर्जा - संयंत्र के रिसाव से फैली आयोडीन व सीजियम
अटलांटिक महासागर के जल - विस्तार में
समुद्री जीव - जगत के लिए भयानक ख़तरे का निमित्त बनती,

ज्यों - ज्यों समाहित होती जा रही है पृथ्वी के जल में
मानव - सृजित अतिरिक्त कार्बन डाइ ऑक्साइड
सामुद्रिक अम्लीकरण की गति को और तेज करती
उसके खारेपन पर आश्रित जीवों के विनाश का भविष्य रचती,

ज्यों - ज्यों तेज होती जा रही है
आल्प्स व हिमालय के हिमशिखरों के पिघलने की गति
और विस्तृत होते जा रहे हैं उनके हिमनद
मैदानी बाढ़ों और समुद्री जल - स्तर में वृद्धि के जरिए
भयानक विनाश - लीला मचाने का संकेत देते हुए,

ज्यों - ज्यों हैलोकार्बन गैसों के बढ़ते दुष्प्रभाव के चलते
घट रही है वायुमंडल में ओज़ोन की मात्रा और
बड़ा होता जा रहा है अन्टार्कटिक क्षेत्र का ओज़ोन - छिद्र
हमें सूर्य की अल्ट्रावायलेट किरणों का शिकार बनने के लिए मजबूर करता,

ज्यों - ज्यों भरते जा रहे हैं हम
धरती के श्वास - कोषों में
नित्य करोड़ों टन औद्योगिक कूड़ा व अविनाशी प्लास्टिक - कचरा
भूमि की उर्वरा - शक्ति का लगातार क्षरण करते
और उसकी जीवनी - शक्ति का दिन - प्रतिदिन हरण करते हुए,

ज्यों - ज्यों फैलाते जा रहे हैं हम पृथ्वी पर ई - कचरा
जिससे बढ़ते जा रहे हैं समस्त जीव - जगत के लिए
सीसा, कैडमियम व पारे जैसे दृव्यों के दुष्प्रभाव
खास कर भारत, चीन व अफ्रीकी देशों में
जहाँ विकसित देश निर्यातित कर देते हैं इसे सस्ते में
दरकिनार कर सारी अन्तर्राष्ट्रीय धारणाएँ व मार्ग - निर्देश,

त्यों - त्यों आत्म - ग्लानि भरी निराशा से ग्रस्त होता जा रहा हूँ मैं;

आत्म - ग्लानि - मानवों के उन समस्त दुष्कृत्यों से जनित
जिनके कारण आ खड़ी हुई है पृथ्वी
महानाश के कगार पर;

निराशा - मनुष्यों की सुविधा - भोग की लालसा, आपाधापी
और स्वार्थपूर्ण चालाकी की प्रवृत्ति से जनित,
जिसने अवरुद्ध कर रखा है
पृथ्वी को इस महानाश से बचाने के

उपायों तक पहुँचने का रास्ता।

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