'अँधेरे में' बेचैन 'मुक्तिबोध'
सड़क पर भागते-भागते
कल रात
मेरे दरवाज़े के आले में भी
छोड़ गए एक लिफ़ाफ़ा
जिसमें से निकली है
'शीर्षोन्नत जनता'
जो 'घाव भरी पीठ वाली ढोर' नहीं।
एक 'मनस्वी क्रांतिकारी' भी निकला है
जो खो चुका है 'अग्नि के अधिष्ठान'
और साक्षात लगता है
'दोनों हाथों आसमान थामे एक शक्ति - पुरुष'
जो 'टेढ़े मुँह चाँद की ऐयारी रोशनी' के संजाल से परे है।
इन्हीं के साथ निकला है
वह 'रक़्तालोक स्नात पुरुष' भी
जो रहस्यमयी नहीं रहा अब।
लिफ़ाफ़ा खोलते ही मुझे मिला है
'मुक्तिबोध' के 'अतिशय परिचित शिशु' जैसा
एक समूचा 'ज्योतिष्मान भविष्य'
'सुनहरी भोर का रश्मि - पुंज'
जो निश्चित ही अपना होगा
बशर्ते कि
मैं अँधेरे में
घबराना छोड़ दूँ!
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