आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में
Saturday, May 3, 2014
अगिया बैताल (2006)
बैताल का
एक ही प्रश्न
उलझाकर रख
देता था विक्रमादित्य को
आज बैताल
के उन प्रश्नों से भी जटिल
इतने सारे
प्रश्न
एक साथ उठ
रहे हैं चारों ओर
कौन देगा
इन प्रश्नों का उत्तर आज,
निरुत्तरित
प्रश्नों के बीच कैसे हो सकती है
किसी नए विकल्प
की तलाश?
सुनता था
बचपन में कि
गाँव के श्मशान
के बीच से
आधी रात में
गुजरता है एक अगिया बैताल
जिसके मुँह
से निकला करती हैं
रह - रहकर आग की लपटें
डरते थे इसीलिए
हम रात में
श्मशान की
तरफ जाने से
आज उसी अगिया
बैताल के मुँह की तरह
निकलती रहती
हैं रह - रहकर
हमारे
चारों तरफ से प्रश्नों की लपटें
इसीलिए इर्द-गिर्द की बस्ती
श्मशान जैसी
लगने लगी है मुझे
डरने लगे
हैं लोग भी
इस बस्ती
की तरफ आने से
भला कौन करना
चाहेगा सामना
इन प्रश्नों
की लपटों का!
पहले बहुत
छोटी थी मेरी दुनिया,
मेरा गाँव
था, पास का कस्बा था,
दूर गिनती
के शहर थे,
कहने को देश
था, विदेश था
लेकिन आज
अजीब - सा विस्तार हो गया है
मेरी उस छोटी - सी दुनिया का।
मेरे गाँव
में धीरे - धीरे
यूरोप का
एक गाँव घुस आया है
मेरे कस्बे
में, शहर में,
न जाने कहाँ
का कचरा आ समाया है
मेरी रसोई
में न जाने कहाँ का आटा, कहाँ की भाजी है,
वह माचिस
जिससे अभी - अभी मैंने अपना दीया जलाया है
पता नहीं
किस देश से आई है!
आज विकसित
देशों की उत्सर्जित गैसों से
हमारी धरती
की ओज़ोन - परत को ख़तरा है
लेकिन उनका
उल्टे हमारी सदियों पुरानी खेती - किसानी पर पहरा
है
आज न जाने
किस - किस की ऐयाशी की गरमी से
हमारी तटीय
बस्तियों के
समुद्र में
डूब जाने का डर पसरा है
लेकिन शाज़िश
कुछ ऐसी है कि
उल्टा हमारे
ही ख़िलाफ़ इल्ज़ाम गहरा है।
दाना किसी
का है
पानी किसी
का है,
भूख की चिन्ता
बस दिखावा है
सुविधा - भोग के एथेनॉल की खातिर
न जाने किस - किस का पेट काटा जा रहा है
न जाने कहाँ - कहाँ से आती हैं
अब हमारी
दीवाली की लड़ियाँ
और होली की
पिचकारियाँ भी
अभी इतना
सब बदल जाने पर भी
कहीं कोई
चिन्ता नहीं दिखती,
कोई आत्म - मंथन नहीं,
इस धरती पर
हमारे देखते ही देखते
शायद चाँद
को भी उतार लाएँगे वे हमारे गाँव और कस्बे में
या फिर मंगल
अथवा सौर - मंडल के किसी अन्य ग्रह को
या फिर शायद
हमें ही जाकर बसना पड़ जाय
वहीं पर कहीं
अपना दाना - पानी तलाशने ।
आज सारा विश्व
मिलकर बना रहा है जीन - बैंक
सारा विश्व
मिलकर खोज रहा है मानव - जीनोम
सारा विश्व
मिलकर बनाने को तत्पर है मनुष्य - भ्रूण
अरबों की
लागत से सारे विश्व ने मिलकर बनाई है
लार्ज हाइड्रॉन
कोलाइडर मशीन
सारे विश्व
के वैज्ञानिक मिलकर खोज रहे हैं
ब्रह्माण्ड
की उत्पत्ति के रहस्य
इन वैश्विक
अभियानों में अनजाने ही
शामिल किए
जा रहे हैं,
हम भी, हमारी बस्ती भी,
घर - द्वार वाले भी, बेघर व वन -
वासी भी,
चुपचाप अनगिनत
प्रयोगों व परीक्षणों की वस्तु बनते जा रहे हैं हम
चतुरों के
प्रयोग हैं,
चालाकों की
पूंजी है,
अनगिनत सवालों
के घेरे में
अगिया बैताल
बनती जा रही है दुनिया
रह - रहकर भभकते रहते हैं ये सवाल उसके मुँह से
हमें धमकाते हुए,
पूरी बस्ती को डराते हुए।
विकास का
नारा है
तकनीक है, इंटरनेट है,
इलेक्ट्रॉनिक
दुनिया है
इस दुनिया
में बस आँकड़े ही आँकड़े,
डाटा सेन्टर
ही ज्ञान के केन्द्र हैं,
अक्षर हैं, गिनतियाँ हैं,
साहित्य दरकिनार
है,
विकार की
नकार है,
प्रेम बस
समझौता है,
संघर्ष है, सुलह है,
विलम्ब स्वीकार्य
नहीं
सारा कुछ
होना चाहिए
बस रियल टाइम
में ही
शब्द की गति
से ही नहीं,
प्रकाश की
गति से भी तेज।
सभी को बस
ऊर्जा की जरूरत है
स्रोत चाहे
कुछ भी हो
पानी हो, कोयला हो,
खनिज हों, गैसे हों,
ओपेक के अपने
दस्तूर हैं
आई.ए.ई.ए. के अपने अनुबन्ध हैं
एन.एस.जी. की अपनी
शर्तें हैं
व्यवसायियों
के स्वार्थी चंगुल हैं
उनके चंगुलों
में फँसी ताकतवर सरकारें हैं
सीमित हैं
खनिज - संसाधन
असीमित हैं
आवश्यकताएँ
अनियंत्रित
हैं लिप्साएँ
ज्ञात भविष्य
की चिन्ता नहीं
अज्ञात की
ओर लपकना है।
इस अंधी दौड़
में
हम भी हैं, वे भी हैं,
अंधेरे का
डर है,
उजालों से
नफ़रत है,
पूंजी के
चोंचले हैं
पूंजी की
पूजा है,
पूंजी से
जुड़े प्रश्नों का घटाटोप है
लेकिन समाज
और शोषण के सवालों पर फतवा है।
एकता या अखंडता
हो,
सामाजिक समरसता
हो,
इन्हीं के
रसगुल्ले खिलाने के लिए
नित्य गाढ़ी
की जाती है चासनी
जातीयता की, साम्प्रदायिकता की,
धार्मिक उन्माद
की,
भाषायी अलगाववाद
की,
न भूख से
मतलब है, न प्यास से,
न गरीबी से, न बीमारी से,
बस इसी चासनी का स्वाद चखाते
घूम रहे हैं
चारों ओर
समाज के ठेकेदार,
प्रजातंत्र
के लम्बरदार।
ठेंगे पर
व्यवस्था है,
सिद्धान्तों
की फज़ीहत है,
चेहरे पर
चेहरे हैं,
मुखौटों के
चैनल हैं,
ख़बरें हैं, खुलासे हैं,
कहने को बहुत
कुछ है,
संसद है, संविधान है,
सरकारें हैं, अदालते हैं,
लेकिन जिसकी
हैं, उसकी हैं,
सत्ता आत्म - मुग्ध है,
न्याय खर्चीला
है,
सबसे असरदार
आज चाँदी का जूता है,
आगे - आगे चलता है,
उछलता - कूदता है,
धूल में सनकर
भी चमकता है, महकता है।
'सत्यमेव
जयते' की आड़ में झूठ के पुलिन्दे हैं,
'अहिंसा
परमो धर्म:' की तख़्ती पर
ख़ून के धब्बे
ही धब्बे,
'सर्वे
सन्तु निरामय' के उद्घोष में आतंक का साया है,
'वसुधैव
कुटुम्बकम' के द्वारे बँटवारे ही बँटवारे,
इस ग्लोबल
बस्ती का यही असली चेहरा है,
इस चेहरे
पर खरोंचें ही खरोंचें हैं,
हमारे भी, पुरखों के भी।
एकाकार होते
द्वीपों, महाद्वीपों, उपग्रहों,
ग्रहों के बीच
अपवाद बनकर
खड़ी हैं आज भी हमारी इस बस्ती में
अतीत में
नीति - नियंताओं द्वारा रची गई विभाजनकारी दीवारें
जर्जर व बेकार
होते हुए भी
गिरा नहीं
पाए हैं इन्हें आज तक हम
रोज़ नई - नई ताकतें पैदा होती हैं यहाँ
इन्हें फिर
से मजबूत बनाने के लिए,
भूमंडलीकरण
के इस दौर में भी
कैसी विरोधाभाषी
प्रवृत्ति का शिकार है
हमारी यह
आत्महंता - सी दिखने वाली
जटिलता में
जकड़ी बस्ती!
दुनिया की
दूसरी कौमों से जटिल हैं हमारे सवाल
अपनी शंकाओं
का समाधान पाने के लिए भटकता गरुड़
कहाँ पाएगा
आज किसी काकभुशुण्डि को
आज कहाँ मिलेगा
हमें ऐसा कोई विक्रमादित्य
जो ढूँढ़ सकेगा
इतने सारे जटिल प्रश्नों के उत्तर एक साथ,
आज तमाम
ज्वलन्त सवालों की लपटें भभकाता अगिया बैताल
निरन्तर घूमता
प्रतीत होता है हमारे बीच
इस बस्ती
को श्मशान की तरह भयावह बनाता
हमारे धुंध
में घिरे भविष्य को और अधिक डराता, धमकाता।
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