आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Sunday, May 4, 2014

शिकारी (2013)

- अभी मिली है
एक अबोध बच्ची की क्षत - विक्षत लाश
मोहल्ले के नुक्कड़ पर रखे कचरे के डम्पर के पास,
अभी - अभी फेंकी गई है एक युवती की लहू - लुहान देह
किसी लम्बी - ऊँची दौड़ती हुई कार से सड़क के किनारे,
अभी - अभी तेजाब फेंककर जला दिया गया है
भरे बाज़ार के बीच एक सुन्दर लड़की के चेहरे को,
अभी - अभी अस्पताल ले जाया गया है एक नवागत बहू का
रसोई में सिर से पाँव तक झुलस गया शरीर,
अभी - अभी गन्ने के खेतों में देह की खाल छिलवाते हुए भागी है
दरिदों के चंगुल से बचकर एक अपहृत स्त्री,
अभी - अभी सरसों के खेत के बीच बेसुध पड़ी मिली है
अतिशय रक्त - स्राव से पीली पड़ी हरिजन - बस्ती की एक औरत,
अभी - अभी मानों हर संभव बर्बरता टूट पड़ी है
देश भर में नारी जाति के ऊपर,
क्या यह वही भारत देश है
जहाँ कुँवारी कन्याओं की पूजा कर
उन्हें जिमाया जाता है पर्व - त्योहारों पर
और स्त्री को संग लेकर बैठे बिना
पूरा नहीं होता कोई भी अनुष्ठान - यज्ञ?

काँपते नहीं तुम्हारे हाथ क्या?
लड़खड़ाते नहीं तुम्हारे पैर भी?
धिक्कारता नहीं विवेक भी किञ्चित?
यह कैसी कामांधता है?
जो सारे संस्कारों, सामाजिक मान्यताओं को ताख पर रखकर
विवश कर देती है तुम्हें करने को बलात्कार
वीभत्सता की पराकाष्ठा के साथ
नवयौवनाएँ ही नहीं
किशोरियाँ और मासूम बच्चियाँ तक बनती हैं तुम्हारा शिकार
इतनी निर्ममता और क्रूरता
कहाँ से आकर समा जाती है
तुम्हारी आँखों में शिकारी!

जरूर बह रहा होगा तुम्हारी धमनियों में
रक्त - शिराओं से पलटकर बहता गंदा ख़ून,
जरूर भरा होगा तुम्हारे मस्तिष्क में
अतीत में सँजोए गए तमाम कुत्सित विचारों का मलबा,
जरूर तुम्हारे फेफड़ों ने घोली होगी रक्त में वह प्राणवायु
जो समेटी होगी तुमने अपनी साँसों में
किसी विषाक्त फलों वाले वृक्ष के नीचे बैठ - बैठकर,
जरूर तुम्हारे गुर्दे बन्द कर चुके होंगे
देह में प्रवाहित हो रही मलिनता को उत्सर्जित करना,
जरूर तुम्हारे भीतर कहीं न कहीं संरक्षित होगी अभी भी
मनुष्य के विकास - क्रम की लम्बी परम्परा की
कोई न कोई आदिम प्रवृत्ति,
इसीलिए तुम उद्यत रहते हो हर वक्त
करने को ऐसा पशुवत आचरण
और नहीं बाँधना चाहते अपने पुंसत्व को
मानवीय मान्यताओं के अनुरूप
समाज में स्थापित किसी नियम - संयम से,
तुम्हारी भूखी देह और विकृत दिमाग के लिए
किसी भी उम्र की कैसी भी स्त्री की देह बस एक शिकार है
और तुम उसे एकान्त में देखते ही टूट पड़ते हो उस पर
नरभक्षी शेर से भी ज्यादा ख़तरनाक तरीके से।

कल तक वक्त भले तुम्हारे साथ रहा होगा शिकारी!
लेकिन वक्त हमेशा किसी के साथ नहीं रहता
आज हवाओं का रुख तुम्हारे ख़िलाफ़ है
अब गलत इरादे से बढ़े तुम्हारे हर हाथ को
हज़ारों तीखे दंश झेलने ही पड़ेंगे चारों तरफ से
अब तुम्हारे किसी भी बहके हुए कदम को
आतंक के पद - चिन्ह छोड़ने के लिए नहीं मिलेगा एक भी ठौर
अब पूरी निशानदेही होगी तुम्हारी चप्पे - चप्पे पर
और हर गली - कूचे में कड़ी निगरानी होगी तुम्हारी हिस्ट्री - शीटरों की तरह।

शिकारी, क्या मेरे भीतर ही छिपे हो तुम?
इसीलिए मेरे लिए तुम्हें अलग से पहचानना भी हो रहा है मुश्किल
और तुम्हारा ख़ात्मा करना लग रहा है
आत्महत्या करने जैसा ही कठिन?
लेकिन आजकल अँधेरे में खूब जलने लगी हैं मोमबत्तियाँ
तुम्हें अब किसी भी अँधेरे कोने में छिपने नहीं दिया जाएगा
शिकारी, अब तो तुम्हारी अरथी के बाँस भी कट चुके हैं

और तुम्हारी चिता की लकड़ियाँ भी इकट्ठा की जा चुकी हैं श्मशान में।

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