शब्दों का क्या?
शब्द तो ढेरों थे,
अर्थ भरे और निरर्थक भी,
जिसकी जैसी ज़ुबान
उसके पास वैसे ही शब्द थे।
शब्द तो ढेरों थे,
अर्थ भरे और निरर्थक भी,
जिसकी जैसी ज़ुबान
उसके पास वैसे ही शब्द थे।
कुछ के शब्दों पर भरोसा ही नहीं था
किसी को भी,
इसीलिये रखे थे उन्होंने
किसी को भी,
इसीलिये रखे थे उन्होंने
अपने पास बोलने के लिये
कुछ उधार लिये गये शब्द भी,
चूँकि, कभी भी टिके नहीं रह सकते
कुछ उधार लिये गये शब्द भी,
चूँकि, कभी भी टिके नहीं रह सकते
ऐसे लोग
अपने कहे गये शब्दों पर,
अपने कहे गये शब्दों पर,
अतः ऐसे लोगों की वज़ह से ही
आज बन चुके हैं कुछ लोग
आज बन चुके हैं कुछ लोग
शब्दों के कारोबारी भी।
शब्द उछाले जा रहे हैं आज सरेआम
तरह - तरह की ज़ुबानों से
डराने - धमकाने - गरियाने - बरगलाने के लिये,
अखबार के पन्नों से भी गायब हो रहे हैं वे शब्द
जिन पर अब किया जा सके कभी कुछ भरोसा।
तरह - तरह की ज़ुबानों से
डराने - धमकाने - गरियाने - बरगलाने के लिये,
अखबार के पन्नों से भी गायब हो रहे हैं वे शब्द
जिन पर अब किया जा सके कभी कुछ भरोसा।
शब्दों का क्या?
शब्द तो पत्थरों की तरह बेज़ान हो चले हैं आजकल,
उनका इस्तेमाल किया जा रहा है बस,
गाहे - बगाहे किसी न किसी का माथा फोड़ने के लिये।
शब्द तो पत्थरों की तरह बेज़ान हो चले हैं आजकल,
उनका इस्तेमाल किया जा रहा है बस,
गाहे - बगाहे किसी न किसी का माथा फोड़ने के लिये।
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