आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Saturday, May 3, 2014

दाना चुगते मुरगे (2000)

कुछ मुरगे दाना चुगने निकले
सामने बिखरे दाने
बाँट लिये उन्होंने अपनी-अपनी सुविधानुसार
और चुगने लगे जी भरकर
जैसे उन्हें सर्वाधिकार मिला था
मनचाहे तरीके से दाने चुगने का
मुझे अपना देश याद आया।

थोड़ी देर में एक मुरगे को लगा
जो दाने वह चुग रहा है
वह शायद घटिया हैं
दूसरे दानों के मुकाबले
उसने शोर मचाया कि
उसे भी कुछ अच्छे दाने मिलने चाहिए
सबको चुपचाप अच्छे दाने मिलते रहें
इसलिए समझौता हुआ
उसे भी दे दिए गए कुछ अच्छे दाने चुगने के लिए
मुझे अपने देश की राजनीति याद आई।

चुगते-चुगते एक मुरगे ने
दूसरे मुरगे के सामने का दाना खा लिया
फिर क्या था
लड़ने लगे दोनों मुरगे
अपने-अपने क्षेत्राधिकार को लेकर
अंत में उनके मुखिया ने निष्कर्ष निकाला
गलती शायद दाने की ही थी
उसे नहीं पता था कि
किस मुरगे के सामने उसे होना चाहिए था
और फिर शांति से चुगने लगे मुरगे अपने-अपने दाने
मुझे याद आई साझा सरकारों की।

दाने कम होते देखकर
और दानों की मांग की मुरगों ने
पेट भरा था उनका
फिर भी दानों का लालच विवश किए था
यह जानकर कि शायद और दाने न मिल सकें
सब चुग लेना चाहते थे अधिकाधिक बचे खुचे दाने
दानों की कमी संघर्ष का कारण बनने लगी
कुछ मुरगों के सामने बचे थे बस खराब ही दाने
अच्छे दानों पर एकाधिकार जमाने के लिए
चोंचों के वार होने लगे
एक दूसरे के खून के प्यासे हो चले थे मुरगे
मुझे याद आई लखनऊ, पटना, दिल्ली की।

कुछ मुरगे होशियार निकले
दाने चुगने का मजा ले चुके थे वे
समझ चुके थे कि दाने तो फसल से ही मिलते हैं
फिर फसल ही खाने का मजा क्यों न लिया जाए
ऐसे मुरगे खेतों की तरफ बढ़कर
फसलों को खाने में रम चुके थे
उन्हें इसकी चिंता भी नहीं थी
कि अब उनके साथियों को दाने कैसे मिलेंगे
और अंततोगत्वा उन्हें भी फसलें कैसे मिलेंगी।


फसलें ख़त्म होती जा रही थीं
मुरगे फिर लड़ने के लिए तैयार हो रहे थे
मुझे अपने देश के भविष्य की चिंता हो रही थी।

No comments:

Post a Comment