आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Sunday, May 4, 2014

दिल्ली के आसमान की धूल (2008)

धूल बहुत छाई रहती है प्राय:
आजकल दिल्ली के आसमान में
पारा भी चढ़ जाता है अक्सर काफी ऊपर
मौसम वैज्ञानिक बताते हैं कि
राजस्थान के रेगिस्तान से आती है यह धूल तथा
सूरज के कर्क रेखा की ओर बढ़ने पर ही
चढ़ता है दिल्ली का पारा
पर मेरे गाँव का नवबढ़ा नेता
औतरवा कहता है कि
देश के लाखों गाँवों के
उसके जैसे गरीबों के पैरों के नीचे से
निरन्तर खिसक रही है जो ज़मीन
उसी की धूल अब उड़ - उड़कर छाने लगी है
दिल्ली के आसमान में और
उन्हीं गरीबों की उच्छ्वासों की समेकित ऊष्मा से ही
चढ़ने लगा है आए - दिन दिल्ली का पारा

दिल्ली वाले मानें या न मानें
पर औतरवा मानता है कि
शीघ्र ही फैल जाएगी यह धूल और गर्मी
न्यू यार्क, ब्रुसेल्स और टोकियो तक भी
अगर नहीं रुकता उन गरीबों के पैरों के नीचे से
ज़मीन का यह खिसकाव
भले कितनी ही चर्चाएँ हों इसके बारे में
जेनेवा, रोम और विभिन्न जी - समूहों के मंचों पर

औतरवा का यह भी मानना है कि
उसके जैसों के उठकर चल पड़ने से ही
उड़ने लगी है यह धूल और भी तेजी से
और अब रोज़ दिल्ली वालों की चमचमाती गाड़ियों पर गिरकर
इसकी एक परत तो जमी दिखाई ही देगी नित्य
भले ही दिल्ली वाले इसे कितना ही झाड़ें - पोछें
यह सिलसिला अब तब तक बन्द नहीं होगा
जब तक दिल्ली वाले इसका मर्म समझकर
देश के लाखों गाँवों के गरीबों के पैरों के नीचे से

ज़मीन का खिसकना बन्द नहीं करा देते जुटकर।

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