आलोचकों द्वारा वर्षों पहले
कपाल - क्रिया कर दिए जाने के बावजूद
पुनर्जीवित हो उठती है कविता आजकल
प्रायः यहाँ - वहाँ
भिन्न-भिन्न संवेदनाओं व सरोकारों के साथ
नूतन विम्बों, भाषायी
प्रयोगों व शैलियों से संपुष्ट होकर
अभिनव सौन्दर्य - बोध का परिचय कराती हुई
समय की माँग है कि
आज की इस कविता के लिए
रचे जाएँ अब नए सिरे से रस - सिद्धान्त।
भला बताओ कि
क्या जरूरत है आज वीर रस की?
जब यु्द्ध के मैदान में दागी जानी हैं बस
मिज़ाइलें व मशीनगनें ही
और किए जाने हैं हमले बस मानव - रहित विमानों से
ही
तथा सिद्ध करने को अपना पराक्रम व शक्ति
बस रखे रहनी है हमें एक अँगुली अपनी
परमाणु - बमों के रिमोट - ट्रिगर पर,
वीर रस की जगह आज शामिल किया जाना चाहिए
यांत्रिक अथवा अमानुषिक शौर्य रस को
नई काव्य - रस - सिद्धान्त - मीमांसा करते समय।
सोचो कि क्या जरूरत है आज
शांत रस की?
जब बढ़ती आबादी और प्रौद्योगिकी ने
छोड़ा ही नहीं है विश्व को इस लायक कि
घने जंगलों तथा दुर्गम हिम - शिखरों पर भी
मिल सके किसी को जरा - सी भी आत्म - शांति,
आज शांत रस की जगह
कविता में परखे जाने चाहिए बस
विक्षोभ अथवा असन्तुष्टि रस के तत्व।
इसी तरह कोई विशिष्टता नहीं लगती आज हमें
रौद्र या वीभत्स रस के बारे में बात करने में
क्योंकि आज तो दुनिया में
हर एक इन्सान का चेहरा ही
धारे रहता है रौद्र रूप,
हर एक बात ही आज
लगती है हमें परम वीभत्स
तथा हर एक दृश्य ही अब होता जा रहा है
भयानक से भयानकतम,
कुछ हमारी करतूतों की वज़ह से
तथा कुछ - कुछ प्रकृति के बिगड़ते मिज़ाज के कारण।
आज कुछ अजीब - सा ही लगता है आलोचकों को
अगर कविता में कहीं भूले से भी टपक जाती है कुछ
सौम्यता
विम्बों में कहीं झलक जाती है थोड़ी सी भी अभिरामता
तथा दृश्यांकन में कहीं जरा सा भी
अभिव्यंजित हो उठता है कुछ सुंदर व मनोरम - सा।
आज करुण रस नहीं उपजाता आर्द्रता तमाम आँखों में,
आज हास्य तो सीमित है
मंचीय कविताओं अथवा टेलीविजन के फूहड़ सीरियलों तक
ही,
कन्या - भ्रूण - हत्याओं में संलग्न इस देश में
दिनो - दिन खाली होता जा रहा है वात्सल्य का कटोरा
भी,
‘शीला
की जवानी’ व ‘चिकनी चमेली’ के दीवाने इस देश
में
श्रंगार की तो बात ही करना फिजूल है,
संयोग में निरत होना
सरोकारों से दूर होना है यहाँ
और वियोग की चर्चा करना
भावातिरेक के महारोग का मरीज़ बन जाना।
चलो अब पहचानने की कोशिश की जाय कि
वे कौन - कौन से रस आ समाए हैं आज की कविता में
जिन्हें पहले के आचार्यों ने ठहरा दिया था बेकार
व विरस,
शायद ऐसे रसों की अनुभूति हो सकेगी आज हमें
उन कविताओं में,
जो उभर रहीं हैं चारों तरफ से
अपना सब कुछ खो चुके
हाशिए पर जीने को मजबूर
मानव - समूहों के तृषित कंठों से
कुछ - कुछ कराहने जैसे व कुछ - कुछ हुंकार भरे स्वरों
में डूबी।
ऐसे ही बेढंगे रस भरे हैं आज
उन कविताओं में भी,
जो पैदा हो रही हैं खीझकर सर्वत्र
तथाकथित विकास की अंधी दौड़ में नीचे गिरे पड़े
लगातार लतियाए जा रहे लोगों की लाचारी के चलते,
अथवा उभरते वैश्विक बाजार की
सर्वग्रासी प्रवृत्तियों का निवाला बनकर
शनैः -
शनैः अस्तित्वहीन होती जा रही
पारंपरिक उद्यमिता की मरणांतर पीड़ा को भोगते
हुए,
या फिर भ्रष्टाचार, शोषण, बेईमानी
व विस्थापन के शिकार
देश के करोड़ों हताश युवाओं के
कुंठित व उद्वेलित मस्तिष्कों की नसों के बढ़ते
तनाव के कारण।
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