गति और दूरी के सवाल
हल किया करते थे
हम कक्षा छह और सात में
अब तो बात - बात में
हमारे - तुम्हारे भीतर गति आ जाती है
और फासले भी घट जाते हैं
किन्तु अचानक ही बढ़ भी जाते हैं।
वहीं रहती हो तुम और तुम्हारी दुनिया भी
प्राय: मैं ही विस्थापित
होता हूँ ऐसे
जैसे ज़िंन्दगी पटरियों पर भागती ट्रेन हो,
बगल के खेत, जंगल, मैदान सब
जैसे तुम्हारा ही साथ देने के लिए
पीछे रह जाते हैं
और मैं ही लगातार
दूर होता चला जाता हूँ तुमसे।
मन प्राय: तुम्हारी
स्मृतियों के संवेग के झटके खाकर
लुढ़का रह जाता है पीछे
ट्रेन से
उल्टी दिशा
में कूदे
धड़ की
तरह
और कदम बढ़ते ही रहते हैं
गति की श्रृंखला में जकड़े हुए
तुमसे दूर,
निरंतर आगे की ओर।
No comments:
Post a Comment