आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Sunday, May 4, 2014

ख़ुदा का नूर (2013)

यही तो होता है
किसी भी कठिन समय का संत्रास
कुछ बातों का इतिहास
हमेशा ही दोहराया जाता है यहाँ!

हर अन्याय का प्रतिरोध
कुचला जाता है
बूटों और संगीनों से,
लेकिन काटे जाने के बावजूद
निकल ही आती हैं
पहले से भी ज्यादा घनी शाखाएँ
जिन्दा बच गए दरख़्तों के ठूठों से।

एक इतिहास ही तो दोहराया जा रहा है,
देखो! ख़ुदा के नूर सा फैला हुआ है
चौहह साल की मलाला के सीने पर ख़ू
यह उन्हीं गोलियों की ही तो करतूत है
जो धाँस दी गई थीं एक दिन
अठहत्तर साल के बूढ़े बापू के सीने में भी
राम - नाम की गूँजती प्रार्थना के बीच।

कोई मलाल न करना दोस्तो!
यदि मलाला न बचे
या बच जाने के बाद भी
वह फिर से आक्रमित हो,
हाँ, उसकी सलामती के लिए प्रार्थनाएँ जरूर करना।

मलाल तो तभी करना दोस्तो!
जब वक्त की दरकार होते हुए भी
फिर से न पल्लवित हों पाएँ
इन्सानियत के काटे गये दरख़्त,
यानी, फिर से न पैदा हों धरती पर
कोई रहनुमा बापू जैसा
या फिर कोई बेटी मलाला जैसी
जो तैयार हो खाने को अपने सीने पर गोलियाँ
और बिखेरने को चारों तरफ ख़ुदा का नूर
अपने ख़ून की लालिमा फैलाकर

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