जैसे माँ
ही जान
सकी है
पीड़ा शिशु
के अनुभव
की,
जान चुका
हूँ मैं
भी पीड़ा
गीत
- प्रसव के
अनुभव की।
अक्षर - अक्षर से शब्दों
का और
पंक्ति का
निर्मित होना,
अन्तर्मन से
उमड़
- उमड़कर फिर
उसमें भावों
का भरना,
विह्वलता के
साथ समूचे
छंदों का
फिर बाहर
आना,
कभी व्यथा
तो कभी
तुष्टि की
सघन मूर्ति
बन रोना
- गाना,
तरु की
शाखा ही
ज्यों जाने
व्यथा खगों
के कलरव
की।
जान चुका
हूँ मैं
भी पीड़ा
गीत
- प्रसव के
अनुभव की।।
क्यों पतझड़
रूखा लगता
है,
क्यों वसन्त
मन को
भाता है?
नदिया क्यों
प्यासी लगती
है,
सागर क्यों
मन भरमाता
है?
क्यों भँवरे
संदेशा लाते,
प्रश्न पपीहा
क्यों करता
है?
सावन में
मन नित्य
झूमता, भादों में फिर
क्यों डरता
है?
इन प्रश्नों
के उत्तर
मुझको देती
मधुर संधि
वय की।
जान चुका
हूँ मैं
भी पीड़ा
गीत
- प्रसव के
अनुभव की।।
सुख क्या
है यह
जान न
पाया, मुझे नियति ने
खूब छकाया,
मैंने अधरों
की स्मिति
में मन की पीड़ा सदा छिपाया,
खोया रास
- रंग जीवन
का,
जीने की
अभिलाषा खोई,
निष्ठुरता के
भँवर - जाल में अपनों
की परिभाषा
खोई,
पाना - खोना, खोते जाना,
यही कहानी
हर लय
की।
जान चुका
हूँ मैं
भी पीड़ा
गीत
- प्रसव के
अनुभव की।।
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