आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Sunday, May 4, 2014

विडंबना (2011)

यह कलंक अब
कहाँ छिपाकर रखा जाए कि
हम आज भी मजबूर हैं
उग आने को
बज - बजाकर
सड़ी - गली काठ पर
जिस पर हर कुत्ता टांग उठाकर
शू - शू करता है हिक़ारत से
यह सिद्ध करता हुआ कि
हमारा नाम कुकुरमुत्ता ही होना चाहिए।

आज़ादी के इतने बरस बाद भी
नहीं सुनते हमारी कभी
डालियों पर इतराते रंगीन गुलाब
भले कितनी ही चोटें खा चुके हों वे
'निराला' के शब्द - वाणों से बिंध - बिंधकर।
                
कहाँ छिपाकर रखी जाए
यह काहिली,
यह लाचारी,
यह उदासीनता,
यह प्रतिशोध की अमिट आकांक्षा?

यह कैसी विडंबना है कि
प्रतिरोध करते - करते हम
आदी हो चले हैं अब

कुकुरमुत्ते की ही तरह जीने के।

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