आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Saturday, May 3, 2014

केंचुल (1984)

मैं अपने को
अपने 'आप' से काटकर
अलग कर देना चाहता हूँ
क्योंकि मेरे पास अपना कहने को
केवल कुंठाओं का घेरा भर बचा है।

मैं उतना ही निर्जीव हूँ
जितनी ऑफिस की टेबुल
फिर भी मुझमें अभी भी कुछ संवेदना बची है
अपने आप को परखने की
किन्तु स्वयं को परखने के बाद भी
मैं समझ नहीं पाता कि
यह जो दिमाग प्लाईवुड - सा सड़ता जा रहा है
उसका कारण मैं हूँ
या मुझसे चिपके असंख्य कीट।

आज अपने चारों ओर
जो कुछ मैंने लपेट रखा है
या जो कुछ खुद - बखुद मुझसे लिपटा हुआ है
वह सब
कामचोरी,
झूठी शेखियाँ
गंदे मज़ाक
सतही तिकड़में हैं,
इनका विष लगातार इकट्ठा होकर
मेरे सीधे - सपाट चेहरे को फननुमा बना रहा है
मेरी सीधी चाल को नाग जैसी सर्पिल बनाता हुआ।

मैं अपने इस खोखले आवरण को
जल्द से जल्द उतारकर
अपने आप से इतनी दूर फेंक देना चाहता हूँ
जितनी दूरी से यह बोध भी मिट जाए

कि यह मेरी ही उतारी हुई केंचुल है।

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