आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Sunday, May 4, 2014

वृक्ष (2011)

वृक्ष!
तुम्हें भोजन - निर्माण के लिए
जरूरत तो होगी ही!
क्यों न तुम
मेरी यह देह झुलसाती सारी धूप ले लो!
मेरे द्वारा उत्सर्जित
सारी अपवायु ले लो!
यदि तुम्हें जरूरत न हो तो
भले ही तुम यह सब न लो, वृक्ष!
किन्तु मुझे तो तुम जीने के लिए
थोड़ी सी छाँव दे ही दो!
थोड़ी प्राणवायु दे ही दो!
ऊर्जा के लिए भोजन दे ही दो!

लेकिन क्यों माँग रहा हूँ तुमसे यह सब?
आखिर किस हक़ से?

जब मैंने अपने तरह-तरह के स्वार्थों की पूर्ति के लिए
सदा ही उखाड़ी हैं तुम्हारी बाँहें
सदा ही नोचे हैं तुम्हारे रोम - रोम

सदा ही छीने हैं तुम्हारे आभरण - पुष्प
सदा ही काटा है तुम्हारा मेरु - दंड
सदा ही सुखाई है तुम्हारी जड़ों की मिट्टी,
तो फिर किस प्रत्याशा में माँग रहा हूँ तुमसे यह सब आज
क्या केवल स्वार्थवश अपना जीवन बचाने की उत्कंठा में?

मेरी अब तक की इस घोर कृतघ्नता के लिए
मुझे क्षमा कर दो वृक्ष!
मुझे कोई हक़ नहीं जीने का वृक्ष,
तुम्हारे बिना अब इस धरती पर

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