आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Sunday, May 4, 2014

गाँव (2011)

गाँव की नदी पर अब
एक पुल बन गया है
केवल पन्द्रह मीटर लंबा
लेकिन इतने भर से ही पट गई हैं
लगभग पचास वर्षों की दूरियाँ,
एकाएक जैसे शहर के
पचासों किलोमीटर नजदीक आ गया है गाँव।

शहर,
जिसने बस एक सदियों पुरानी धरोहर - सा ही
माना सदा गाँव को,
और छोड़े रहा उसे
मात्र रिश्ता निभाने के नाम पर
अपनी बना कर रखी गई
किसी परित्यक्ता पत्नी की तरह,
तथा स्वयं लेता रहा मजे
हमेशा ही चकाचौंध के बीच
नए - नए रिश्तों की गर्मजोशी में डूबा।

गाँव का काम रहा सदा
शहरियों को दूध देना,
गेहूँ, चावल, दाल देना,
फल, फूल, सब्ज़ी देना,
और चना - चबेना खा - खाकर
ईंट - गारा, पत्थर ढोना।

गाँव की मजबूरी रही
शहरियों की मिलों के लिए जमीनें देना,
बिजली के लिए जंगल और पहाड़ देना,
पानी के लिए नदी और झील देना
दौलत के लिए मिट्टी और खदानें देना,
चहकने के लिए नमक देना,
महकने के लिए पसीना देना
बहकने के लिए खूबसूरती देना,
दहकने के लिए प्राणवायु देना।

गाँव का धर्म रहा सदा
समेट लेना शहर का सारा कूड़ा - कचरा,
पी लेना शहर के शरीर से उतारा गया
सारा का सारा ज़हर
और जी लेना पूरी की पूरी ज़िन्दगी
शहर के उतारे हुए कपड़ों के ही सहारे।

लेकिन जब से बन गया है यह पुल
शहरियों से रिश्ता ही बदल गया है गाँव का,
अब शहर खुद आने लगा है गाँव तक,
अपनी चमचमाती गाड़ियों में चल कर
अब तो शहर का एक हिस्सा सा ही लगने लगा है गाँव
और अब लौट कर उसमें बसने लगे हैं वे लोग भी

जो रोज़ी - रोटी के चक्कर में
जा बसे थे कभी शहर में
छोड़कर गाँव की चौपाल को,
क्योंकि तब यह अँगूठी जैसा पुल नहीं था यहाँ
जो शकुंतला की तरह विस्मृत गाँव की
याद दिलाता रहता किसी शहरी दुष्यन्त को।

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