केरल की सड़कों से गुजरते समय
हमेशा याद आती हैं मुझे
मित्र कुबेर दत्त की वे पंक्तियाँ
जिनमें नारियल की फुनगियों पर
फुदक - फुदककर मलयालम
बोलते हैं
कोट्टक्क्यल के लंबे कौए
अक्षर - सम्पन्न केरल
में
शुक - पिक के संवाद से बहुत अलग - सा
नया भाषायी संवाद विकसित होना ही था
कौओं के फुदक - फुदककर बोलने वाले अंदाज़ में
जैसे उन पक्षियों के मन में भी भरी हो चाह
केरल की जागरूक व निर्भीक जनता की तरह ही
अपने अधिकारों और सम्मान की लड़ाई लड़ने की।
इस फुदकने की प्रवृत्ति ने ही दिया है
देश - देशान्तर में मलयालियों को
अपनी धाक जमाने का अवसर
फुदकना होता नहीं सामान्यत:
बिना किसी अतिरिक्त ऊर्जा - प्रवाह के
हमने देखा ही है अतीत में
ऐसी अतिरिक्त ऊर्जा की पराकाष्ठा का प्रदर्शन
जब अद्वैत का वेदान्त - ज्ञान बाँटने
बाल्यावस्था में ही केरल से चलकर
देश के चारों कोनों में
फुदकते हुए पहुँच गए थे शंकराचार्य
यथास्थितिवादियों से निरन्तर शास्त्रार्थ करते - करते।
कोट्टक्क्यल के फुदकते हुए कौवों को देखकर
कुबेर दत्त को भी अहसास हुआ ही होगा
केरल की इस दूर - संचरित
फुदकती हुई विरासत का
इसीलिए उनका मन भी
फुदकने लगा था हरियाले तोते - सा
केलों, कटहल व नारियलों के
अंतरिक्ष तक हहराते हरे समुन्दर में
और रम गए थे वे
दिल्ली की छाया से दूर
केरल के हरित - सम्भवा जीवन की
ऊर्जा का नर्तन देखने में
शर्ट - पैन्ट अंग्रेज़ी
की दुम छोड़
लुंगी लपेट मानुस - जय बोलने में।
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