आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Sunday, May 4, 2014

ऊसर जमीन (2013)

(1)

धरती पर जिसको भी
जहाँ भी मिली कोई उर्वर जमीन
वहीं पर ही बो दी उसने
अपने - अपने स्वार्थ की फसल
कहाँ बोऊँ अब मैं
उगने को आतुर
लोगों की उम्मीदों के
बुआई से वंचित बीज?

एक ही रास्ता बचा है अब कि
फिर से उपजाऊ बनाया जाय
किसी बेकार पड़ी ऊसर जमीन को
और बो दिए जाएँ उसमें
समय की भूख मिटाने वाली
नई किस्म की फसलों के बीज।

(2)

यह जो हरा - भरा उपजाऊ खेत
आज ऊसर में तब्दील हो गया है,
जरूर सींचा होगा इसे साल दर साल
किसी गरीब मजदूर ने
खाली पेट अपने पसीने से
और इत्र से नहाया होगा रोज़
इसका निठल्ला जमींदार,
जरूर बरसों सोई होगी
रेशमी चादर बिछाकर घर की मालकिन
रोज़ शाम उस मजदूर की बीबी से
अपने बेकारी से थके नितंबों को दबवाती हुई,
जरूर लगा होगा इस खेत को उनका शाप
जो बरसों से इसे जोतते, बोते, सींचते, गोड़ते और काटते हुए भी
अपने किसान होने का दावा भी नहीं कर सकते
गल्ले के किसी सरकारी खरीद - केन्द्र पर।

(3)

फसल लहलहाने की आशा नहीं की जा सकती
यदि मिट्टी के सीने पर नमक की जकड़न हो
ऊपर से चाहे जितनी तरलता दी जाय उसे
और चाहे उसमें डाली जाय
कितने भी पोषक तत्वों से भरी खाद
सब कुछ व्यर्थ ही हो जाएगा।

उपाय तो एक ही है बस
चीरा जाय धरती का सीना
गलाया जाय बरसों का जमा नमक
और बहाकर दूर ले जाया जाय उसे नालियों के सहारे
जैसे गुरदे बहा देते हैं खींचकर
शरीर का सारा अपशिष्ट मूत्र की शक्ल में।

जरूरी है अब कि मुक्त किया जाय मिट्टी को
इस खारेपन की त्रासदी से
ताकि उम्मीद की जा सके कि
धरती पर फिर से लहलहा सकती है
समय की भूख मिटाने वाली
नई किस्म की मनचाही फसल।

(4)

समय का खारापन सिमट आने पर
मन का खेत भी हो जाता है ऊसर
और फिर नहीं लहलहाती उसमें
विचारों की कोई भी पोषक फसल।

(5)

मस्तिष्क में पैदा हुआ ऊसरपन भी
दूर किया जा सकता है
थोड़े से तेजाबी विचारों का घोल
धीरे - धीरे पेवस्त कर
जड़ता की अभेद्य परत में छिपी
सिकुड़ी - सूखी शिराओं में।

(6)

पृथ्वी की उत्पत्ति भले ही अभी भी एक रहस्य हो
किन्तु ऊसर की उत्पत्ति के बारे में कुछ भी रहस्यमय नहीं
धरती पर रेगिस्तान भले ही बनते हों जलवायु - परिवर्तनों से
लेकिन ऊसर जमीन तो पैदा होती है
उर्वर व सिंचित प्रदेशों में ही।

गहरा नाता होता है ऊसर भूमि का
अतीत में किए गए उसकी उर्वरता के दोहन से
गनीमत यही है कि
स्थायी नहीं होती धरती की यह अक्षमता
उपचारित किए जाने पर कभी भी बन सकती है

कोई भी ऊसर भूमि उपजाऊ।

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