आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Saturday, May 3, 2014

अंतर्प्रणय (1982)

हर तैराक अच्छी तरह जानता है
कि नदी के दो किनारे
कभी नहीं मिलते आपस में
हम सब भी उसकी बात को
सच ही मानते हैं

पर सच्‍चाई तो गोताखोर की बात में होती है
जो यह जानता है कि
नदी के प्रवाह के नीचे भी होती है एक ज़मीन
इस किनारे से उस किनारे तक विस्तृत
जो अलक्षित ही रखती है
दोनों किनारों को
निरन्तर अंतर्प्रणयरत।

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