आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Saturday, May 3, 2014

जकड़न (1979)

मेरे सामने यह जो वृक्ष है
उसकी जड़ें
मेरी छाती की गहराइयों में
फैली हुई हैं
इसके हरे पत्‍ते
मेरे ही प्रचूषण पर निर्भर हैं।
सब कुछ समझता हुआ मैं
निरन्तर तिलमिलाता हूँ
लेकिन इसका तना इतना मोटा और
इसका बोझ इतना बढ़ गया है
कि मैं उठकर खड़ा नहीं हो पा रहा हूँ।

इसकी जड़ें
मेरी छाती की ज़मीन को जकड़े हुए हैं
जिनकी गिरफ़्त में मैं निर्जीव होता जा रहा हूँ
पर इसे हिला नहीं पा रहा

भय है कि कहीं फिर से
वैसा ही न हो
जैसे धरती में दबे वन तो
सुलगकर कोयला बन गए
पर लाखों वर्षों में भी धरती नहीं सुलगी

मुझे प्रतीक्षा है उस चिनगारी की
जो मेरी छाती की गीली ज़मीन दहका दे
और उस पर बोझ बनकर जमे

इस वृक्ष को ज़िन्दा ही समूल जला दे।

1 comment:


  1. जैसे धरती में दबे वन तो
    सुलगकर कोयला बन गए
    पर लाखों वर्षों में भी
    धरती नहीं सुलगी।
    ....superb

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